गीत मन्ना डे के 

Apr 26, 2011
ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 643/2010/343
'अपने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो' - मन्ना डे पर केन्द्रित इस श्रृंखला में मैं, कृष्णमोहन मिश्र, आप सभी का एक बार फिर स्वागत करता हूँ। कल की कड़ी में हमने आपसे मन्ना डे को फ़िल्मी पार्श्वगायन के क्षेत्र में मिले पहले अवसर के बारे में चर्चा की थी। दरअसल फिल्म 'रामराज्य' का निर्माण 1942 में शुरू हुआ था किन्तु इसका प्रदर्शन 1943 में हुआ। इस बीच मन्ना डे ने फिल्म 'तमन्ना' के लिए सुरैया के साथ एक युगल गीत भी गाया। इस फिल्म के संगीत निर्देशक मन्ना डे के चाचा कृष्ण चन्द्र डे थे। सुरैया के साथ गाये इस युगल गीत के बोल थे- 'जागो आई उषा, पंछी बोले....'। कुछ लोग 'तमन्ना' के इस गीत को मन्ना डे का पहला गीत मानते हैं। सम्भवतः फिल्म 'रामराज्य' से पहले प्रदर्शित होने के कारण फिल्म 'तमन्ना' का गीत मन्ना डे का पहला गीत मान लिया गया हो। इन दो गीतों के रूप में पहला अवसर मिलने के बावजूद मन्ना डे का आगे का मार्ग बहुत सरल नहीं था। एक बातचीत में मन्ना डे ने बताया कि पहला अवसर मिलने के बावजूद उन्हें काफी प्रतीक्षा करनी पड़ी। "रामराज्य" का गीत गाने के बाद मन्ना डे के पास धार्मिक गानों के प्रस्ताव आने लगे। उस दौर में उन्होंने फिल्म 'कादम्बरी', 'प्रभु का घर', विक्रमादित्य', 'श्रवण कुमार', 'बाल्मीकि', 'गीतगोविन्द' आदि कई फिल्मों में गीत गाये किन्तु इनमें से कोई भी गीत मन्ना डे को श्रेष्ठ गायक के रूप में स्थापित करने में सफल नहीं हुआ। हालाँकि इन फिल्मों के संगीतकार अनिल विश्वास, शंकर राव व्यास, पलसीकर, खान दत्ता, ज़फर खुर्शीद, बुलो सी रानी, सुधीर फडके आदि थे।
इस स्थिति का कारण पूछने पर मन्ना डे बड़ी विनम्रता से कहते हैं- "उन दिनों मुझसे बेहतर कई गायक थे जिनके बीच मुझे अपनी पहचान बनानी थी"। मन्ना डे का यह कथन एक हद तक ठीक हो सकता है किन्तु पूरी तरह नहीं। अच्छा गाने के बावजूद पहचान न बन पाने के दो कारण और थे। मन्ना डे से हुई बातचीत में यह तथ्य भी उभरा कि उन दिनों ग्रामोफोन रिकार्ड पर गायक कलाकार का नाम नहीं दिया जाता था, जिससे उनके कई अच्छे प्रारम्भिक गाने अनदेखे और अनसुने रह गए। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि उस दौर में उन्हें अधिकतर धार्मिक फिल्मों के हलके-फुल्के गाने ही मिले। इस परिस्थिति से मन्ना डे लगातार संघर्ष करते रहे।
मन्ना डे कोलकाता से मुम्बई अपने चाचा के सहायक की हैसियत से आए थे। उनकी यह भूमिका अपनी पहचान न बना पाने के दौर में अधिक महत्त्वपूर्ण हो गई थी। वो अपने चाचा को पितातुल्य मानते थे। एक साक्षात्कार में मन्ना डे ने कहा भी था- "मेरे लिए वो आराध्य, मित्र और मार्गदर्शक थे। वह उन दिनों बंगाल के संगीत जगत, विशेषकर कीर्तन गायन के क्षेत्र में शिखर पुरुष थे। मैंने अपने चाचा को कीर्तन गाते हुए देखा था। जब वो गाते थे, श्रोताओं की ऑंखें आँसुओं से भींगी होती थी। उनका सहायक बनना मेरे लिए सम्मान की बात थी। बर्मन दादा (सचिनदेव बर्मन) और पंकज मल्लिक जैसे संगीतकार मेरे चाचा से मार्गदर्शन प्राप्त करने आया करते थे"। ऐसे योग्य कलासाधक की छत्र-छाया में रह कर मन्ना डे संगीत रचना भी किया करते थे। टेलीविजन के कार्यक्रम 'सा रे गा म प' में एक बार गायक सोनू निगम से बातचीत करते हुए मन्ना डे ने बताया था कि अपने कैरियर के शुरुआती दौर में वो अपने चाचा के अलावा सचिन देव बर्मन, खेमचन्द्र प्रकाश और अनिल विश्वास के सहायक भी रहे और स्वतंत्र रूप से संगीत निर्देशक भी। उन्होंने सोनू निगम से यह भी कहा था- "संगीत रचना मैं आज भी कर सकता हूँ, यह मेरा सबसे पसन्दीदा कार्य है।"
50 के दशक में मन्ना डे ने खेमचन्द्र प्रकाश के साथ फिल्म 'श्री गणेश जन्म' और 'विश्वामित्र' तथा स्वतंत्र रूप से फिल्म 'महापूजा', 'अमानत', 'चमकी', 'शोभा', 'तमाशा' आदि में संगीत निर्देशन किया था। फिल्म 'चमकी' में मुकेश ने गीतकार प्रदीप का लिखा गीत- "कैसे ज़ालिम से पड़ गया पाला..." तथा फिल्म 'तमाशा' में लता मंगेशकर ने मन्ना डे के संगीत निर्देशन में गीत- "क्यों अँखियाँ भर आईं भूल सके न हम...." गाया | इस गीत को भरत व्यास ने लिखा है | आइए मन्ना डे की संगीत-रचना-कौशल का उदाहरण सुनते हुए आगे बढ़ते हैं |
फिल्म - तमाशा : "क्यों अँखियाँ भर आईं भूल सके न हम...." : संगीत - मन्ना डे
खोज व आलेख- कृष्णमोहन मिश्र

Posted 26th April 2011 by Sajeev Sarathie
ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 643/2010/343
'क्यों अँखियाँ भर आईं, भूल सके ना हम तुम्हें...' - सुनिए मन्ना डे का स्वरबद्ध एक गीत भी
इस स्थिति का कारण पूछने पर मन्ना डे बड़ी विनम्रता से कहते हैं- "उन दिनों मुझसे बेहतर कई गायक थे जिनके बीच मुझे अपनी पहचान बनानी थी"। मन्ना डे का यह कथन एक हद तक ठीक हो सकता है किन्तु पूरी तरह नहीं। अच्छा गाने के बावजूद पहचान न बन पाने के दो कारण और थे। मन्ना डे से हुई बातचीत में यह तथ्य भी उभरा कि उन दिनों ग्रामोफोन रिकार्ड पर गायक कलाकार का नाम नहीं दिया जाता था, जिससे उनके कई अच्छे प्रारम्भिक गाने अनदेखे और अनसुने रह गए। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि उस दौर में उन्हें अधिकतर धार्मिक फिल्मों के हलके-फुल्के गाने ही मिले। इस परिस्थिति से मन्ना डे लगातार संघर्ष करते रहे।
मन्ना डे कोलकाता से मुम्बई अपने चाचा के सहायक की हैसियत से आए थे। उनकी यह भूमिका अपनी पहचान न बना पाने के दौर में अधिक महत्त्वपूर्ण हो गई थी। वो अपने चाचा को पितातुल्य मानते थे। एक साक्षात्कार में मन्ना डे ने कहा भी था- "मेरे लिए वो आराध्य, मित्र और मार्गदर्शक थे। वह उन दिनों बंगाल के संगीत जगत, विशेषकर कीर्तन गायन के क्षेत्र में शिखर पुरुष थे। मैंने अपने चाचा को कीर्तन गाते हुए देखा था। जब वो गाते थे, श्रोताओं की ऑंखें आँसुओं से भींगी होती थी। उनका सहायक बनना मेरे लिए सम्मान की बात थी। बर्मन दादा (सचिनदेव बर्मन) और पंकज मल्लिक जैसे संगीतकार मेरे चाचा से मार्गदर्शन प्राप्त करने आया करते थे"। ऐसे योग्य कलासाधक की छत्र-छाया में रह कर मन्ना डे संगीत रचना भी किया करते थे। टेलीविजन के कार्यक्रम 'सा रे गा म प' में एक बार गायक सोनू निगम से बातचीत करते हुए मन्ना डे ने बताया था कि अपने कैरियर के शुरुआती दौर में वो अपने चाचा के अलावा सचिन देव बर्मन, खेमचन्द्र प्रकाश और अनिल विश्वास के सहायक भी रहे और स्वतंत्र रूप से संगीत निर्देशक भी। उन्होंने सोनू निगम से यह भी कहा था- "संगीत रचना मैं आज भी कर सकता हूँ, यह मेरा सबसे पसन्दीदा कार्य है।"

फिल्म - तमाशा : "क्यों अँखियाँ भर आईं भूल सके न हम...." : संगीत - मन्ना डे
खोज व आलेख- कृष्णमोहन मिश्र
Posted 26th April 2011 by Sajeev Sarathie
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