Friday, 13 April 2012

'अपने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो' 9

गीत मन्ना डे के
May 4, 2011 
ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 649/2010/349

'हटो काहे को झूठी बनाओ बतियाँ...' मेलोडी और हास्य के मिश्रण वाले ऐसे गीत अब लगभग लुप्त हो चुके हैं

'ओल्ड इज गोल्ड' पर जारी है, सुर गन्धर्व मन्ना डे पर श्रृंखला 'अपने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो'। मन्ना डे के गीतों की चर्चा महमूद के बिना अधूरी रहेगी। हास्य अभिनेता महमूद नें रुपहले परदे पर बहुतेरे गीत गाये, जिन्हें मन्ना डे ने ही स्वर दिया। एक समय ऐसा लगता था, मानो मन्ना डे, महमूद की आवाज़ बन चुके हैं। परन्तु बात ऐसी थी नहीं। इसका स्पष्टीकरण फिल्म "पड़ोसन" के प्रदर्शन के बाद स्वयं महमूद ने दिया था। पत्रकारों के प्रश्न के उत्तर में महमूद ने कहा था -"मन्ना डे साहब को मेरी नहीं बल्कि मुझे उनकी ज़रुरत होती है। 'उनके गाये गानों पर मैं स्वतः ही अच्छा अभिनय कर पाता हूँ।" महमूद के इस कथन में शत-प्रतिशत सच्चाई थी। यह तो निर्विवाद है कि उन दिनों शास्त्रीय स्पर्श लिये गानों और हास्य मिश्रित गानों के लिए मन्ना डे के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं था। उस दौर के प्रायः सभी हास्य अभिनेताओं के लिए मन्ना डे ने पार्श्वगायन किया था।

1961 में एक फिल्म आई थी "करोड़पति', जिसमें किशोर कुमार नायक थे। किशोर कुमार उन दिनों गायक के रूप में कम, अभिनेता बनने के लिए अधिक प्रयत्न कर रहे थे। फिल्म में संगीत शंकर-जयकिशन का था। मन्ना डे नें उस फिल्म में हास्य गीत -"पहले मुर्गी हुई कि अंडा, जरा सोच के बताना...." गाया था जो परदे पर किशोर कुमार पर फिल्माया गया था। इसके अलावा जाने-माने हास्य अभिनेता जॉनी वाकर के लिए 1962 की फिल्म -"बात एक रात की" में सचिनदेव बर्मन के संगीत निर्देशन में हास्य गीत -"किसने चिलमन से मारा नज़ारा मुझे..." गाया था। इस गीत में कव्वाली के साथ हास्य का अनूठा मिश्रण था। 1966 में हास्य अभिनेता आग़ा के लिए मन्ना डे नें रोशन के संगीत निर्देशन में फिल्म -"दूज का चाँद" में ठुमरी (भैरवी) अंग में हास्य गीत -"फूल गेंदवा ना मारो, लगत करेजवा में चोट...." गाया। दरअसल मन्ना डे को 'बोल-बनाव की ठुमरी' का अच्छा अभ्यास था, इस कारण वो शब्दों को स्वरों के माध्यम से अपेक्षित रस-भाव की ओर मोड़ लेते थे।

महमूद के लिए मन्ना डे नें कई हिट गाने गाये। 1966 की फिल्म 'पति-पत्नी' में मन्ना डे ने महमूद के लिए राहुल देव बर्मन के संगीत निर्देशन में गीत -"अल्ला जाने मैं हूँ कौन, क्या है मेरा नाम...." गाया था। इसी वर्ष फिल्म 'लव इन टोकियो' का गीत-"मैं तेरे प्यार का बीमार...", 1968 में फिल्म 'दो कलियाँ' का गीत -"मुस्लिम को तस्लीम अर्ज़ है, हिन्दू को परनाम..." आदि ऐसे कई गाने हैं, जिन्हें खूब लोकप्रियता मिली। मन्ना डे द्वारा महमूद के लिए गाये गए गीतों में से दो गीतों का उल्लेख आवश्यक है। पहला हास्य गीत है फिल्म 'पड़ोसन' का जिसमे मन्ना डे के साथ किशोर कुमार की आवाज़ भी शामिल है। आपको याद ही होगा कि 1961 की फिल्म 'करोडपति' में मन्ना डे ने किशोर कुमार के लिए पार्श्वगायन किया था। वही किशोर कुमार 1968 की फिल्म 'पड़ोसन' में मन्ना डे के साथ मिल कर एक अविस्मरणीय हास्य गीत -"एक चतुर नार..." फिल्म-संगीत-प्रेमियों को देते हैं। किशोर कुमार की प्रशंसा करते हुए मन्ना डे ने कहा भी था -"किशोर जन्मजात प्रतिभा के धनी थे। बिना सीखे वह इतना अच्छा गाकर सबको चकित कर देते थे"। फिल्म 'पड़ोसन' के इस गीत की चर्चा करते हुए मन्ना डे ने यह भी कहा था -"गाने के रिहर्सल और रिकार्डिंग के अवसर पर महमूद उपस्थित थे। उनकी सलाह से गाने में कई 'मसाले' डाले गए, जिससे गाना और अधिक लोकप्रिय हुआ"।


महमूद के लिए मन्ना डे का दूसरा उल्लेखनीय गीत 1960 की फिल्म 'मंजिल' से है। सचिनदेव बर्मन इस फिल्म के संगीतकार थे। उन्होंने इस फिल्म के लिए एक परम्परागत 'दादरा' चुना, जिसके बोल हैं -"बनाओ बतियाँ हटो काहे को झूठी....."। राग "भैरवी" में निबद्ध यह 'दादरा' भी मन्ना डे के लिए एक चुनौती था, क्योंकि इससे पहले कई शास्त्रीय गायक इसे गा चुके थे। उस्ताद मुनव्वर अली खाँ (उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ के सुपुत्र) और गायिका गुलशन आरा सईद (बाद में पाकिस्तान चली गईं) ने इस 'दादरा' को अपने स्वरों से सजाया था। मान-मनुहार से ओत-प्रोत इस दादरा में मन्ना डे ने हास्य का ऐसा सूक्ष्म भाव भर दिया कि महमूद पर फिल्माए जाने के बाद यह 'दादरा' एक नये अनूठे रंग से भर गया। आज हमने आपको सुनाने के लिए फिल्म 'मंजिल' का यही 'दादरा' चुना है| गीतकर मजरूह सुल्तानपुरी और संगीतकार सचिन देव बर्मन।

फिल्म - मंज़िल : "बनाओ बतियाँ हटो काहे को झूठी....." : संगीत - सचिनदेव बर्मन



Posted 4th May 2011 by Sajeev Sarathie

Thursday, 12 April 2012

'अपने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो' 10


गीत मन्ना डे के
May 5, 2011
ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 650/2010/90 

'भोर आई गया अँधियारा...' गज़ब की सकारात्मकता है मन्ना दा के स्वरों में, जिसे केवल सुनकर ही महसूस किया जा सकता है


'ओल्ड इज़ गोल्ड' के चाहनेवालों! आज हम आ पहुँचे हैं, लघु श्रृंखला 'अपने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो' की समापन कड़ी पर। पिछली कड़ियों में हम मन्ना डे के व्यक्तित्व और कृतित्व के कुछ थोड़े से रंगों से ही आपका साक्षात्कार करा सके। सच तो यह है कि एक विशाल वटबृक्ष की अनेकानेक शाखाओं की तरह विस्तृत मन्ना डे का कार्य है, जिसे दस कड़ियों में समेटना कठिन है। मन्ना डे नें हिन्दी फिल्मों में संगीतकार और गायक के रूप में गुणवत्तायुक्त कार्य किया। संख्या बढ़ा कर नम्बर एक पर बनना न उन्होंने कभी चाहा न कभी बन सके। उन्हें तो बस स्तरीय संगीत की लालसा रही। यह भी सच है कि फिल्म संगीत के क्षेत्र में जो सम्मान-पुरस्कार मिले वो उन्हें काफी पहले ही मिल जाने चाहिए थे। 1971 की फिल्म 'मेरा नाम जोकर' के गीत -"ए भाई जरा देख के चलो..." के लिए मन्ना डे को पहली बार फिल्मफेअर पुरस्कार मिला था। एक पत्रकार वार्ता में मन्ना डे ने स्वयं स्वीकार किया कि 'मेरा नाम जोकर' का यह गाना संगीत की दृष्टि से एक सामान्य गाना है, इससे पहले वो कई उल्लेखनीय और उत्कृष्ट गाने गा चुके थे। मन्ना डे को पहला राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार 1969 की फिल्म 'मेरे हुज़ूर' के गीत -"झनक झनक तोरी बाजे पायलिया..." को मिला था। फिल्मों में राग आधारित गीतों की सूची में यह सर्वोच्च स्थान पर रखे जाने योग्य है। गीत में राग "दरबारी" के स्वरों का अत्यन्त शुद्ध और आकर्षक प्रयोग है। 1971 में मन्ना डे को दूसरी बार वर्ष के सर्वश्रेष्ठ पुरुष गायक का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला। इस बार यह पुरस्कार बांग्ला फिल्म 'निशिपद्म' में गायन के लिए मिला था। मन्ना डे हिन्दी और बांग्ला दोनों भाषाओं की फिल्मों में समान रूप से लोकप्रिय हुए थे। पत्रकार कविता छिब्बर से बातचीत करते हुए मन्ना डे ने बताया था -"मैंने अब तक करीब 2500 बांग्ला गीत गाये हैं और इनमे से लगभग 75 प्रतिशत गीत मैंने स्वयं संगीतबद्ध भी किये हैं"। 1952 में मन्ना डे ने 'अमर भूपाली' नामक फिल्म में पार्श्वगायन किया था। यह फिल्म बांग्ला और मराठी, दोनों भाषाओं में बनी थी। इस फिल्म के गीतों से मन्ना डे पूरे बंगाल में लोकप्रिय हो गए थे।

1961-62 में मन्ना डे को भोजपुरी फिल्मों में गाने का अवसर मिला। उन्होंने 'आइल बसन्त बहार', 'बिदेसिया', 'लागी नाहीं छूटे राम', 'सीता मैया' आदि फिल्मों में स्तरीय गीत गाये। इन गीतों में से कुछ गीत पारम्परिक लोकगीतों पर आधारित थे। फिल्म 'बिदेसिया' का गीत "हँसी हँसी पनवा खियौले बेईमानवाँ...." बिहार के चर्चित लोकनाट्य शैली 'बिदेसिया' पर आधारित है। इसी प्रकार 1964 की फिल्म 'नैहर छूटल जाये' में होरी -"जमुना तट श्याम खेलत होरी...." और कजरी -"अरे रामा रिमझिम बरसेला....." में पारम्परिक लोकगीतों का सौन्दर्य था। मन्ना डे ने डा. हरिवंश राय बच्चन की कालजयी कृति 'मधुशाला' की 20 रुबाइयों को अपना स्वर देकर साहित्यप्रेमियों के घरों में भी अपनी पैठ बनाई। 1971 में उन्हें सर्वोच्च सम्मान "पद्मश्री", 2005 में "पद्मभूषण" तथा 2007 में "दादासाहेब फालके पुरस्कार" प्रदान किया गया।

हिन्दी फिल्मों में छह दशक तक अपने श्रेष्ठ संगीत से लुभाने वाले मन्ना डे ने 2006 में 'उमर' फ़िल्म का गीत -"दुनिया वालों को नहीं कुछ भी खबर...." सोनू निगम, कविता कृष्णमूर्ति और शबाब साबरी के साथ गाया था। इस गीत के बाद सम्भवतः उन्होंने हिन्दी फिल्म में गीत नहीं गाया है। इस श्रृंखला को विराम देने से पहले हम आपको एक ऐसा गीत सुनवाना चाहते हैं जिसमें जीवन का उल्लास है, विसंगतियों से संघर्ष करने की प्रेरणा है और अन्धकार से प्रकाश की ओर बढ़ने का आह्वान है। 1972 की "बावर्ची" फिल्म के इस गीत में मन्ना डे का साथ सुप्रसिद्ध ठुमरी गायिका निर्मला देवी और लक्ष्मी शंकर ने दिया है. साथ में है किशोर दा. गीत के बीच में हरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय की आवाज़ भी है। संगीतकार मदनमोहन ने इस गीत को राग "अलहैया विलावल" के स्वरों में और 'तीन ताल', 'सितारखानी' और 'कहरवा' तालों में निबद्ध किया है। इसी गीत के साथ लघु श्रृंखला 'अपने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो' को यहीं विराम देते हैं, और सुर-गंधर्व मन्ना डे को एक बार फिर से बहुत सारी शुभकामनाएँ देते हुए मैं, कृष्णमोहन मिश्र, आपसे अनुमति लेता हूँ, नमस्कार!

गीत : "भोर आई गया अँधियारा...." : संगीतकार - मदनमोहन


'हिंद-युग्म', 'आवाज़' और विशेषत: 'ओल्ड इज़ गोल्ड' स्तम्भ की तरफ़ से, इसके तमाम श्रोता-पाठकों की तरफ़ से, और मैं, सुजॉय चटर्जी, अपनी तरफ़ से श्री कृष्णमोहन मिश्र का तहे दिल से आभार व्यक्त करता हूँ इस अनुपम श्रृंखला को प्रस्तुत करने के लिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि इन दस कड़ियों के माध्यम से उन्होंने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के स्तर को जहाँ तक पहुँचा दिया है, उस स्तर को कायम रखना हमारे लिए चुनौती का काम होगा। रविवार एक नई श्रृंखला के साथ हम उपस्थित होंगे, लेकिन आप शनिवार की शाम 'ओल्ड इज़ गोल्ड विशेषांक' में शामिल होना न भूलिएगा। और अब मुझे भी अनुमति दीजिए, नमस्कार! 

खोज व आलेख- कृष्णमोहन मिश्र




Posted 5th May 2011 by Sajeev Sarathie



Thursday, 22 March 2012

"दिल आने के ढंग निराले हैं" - वाक़ई निराला था ख़ुर्शीद अनवर का संगीत जिनकी आज १०१-वीं जयन्ती है!

पूरे पंजाब विश्वविद्यालय में एम.ए दर्शनशास्त्र में प्रथम आने के बाद प्रतिष्ठित ICS परीक्षा के लिखित चरण में सफल होने के बावजूद साक्षात्कार चरण में शामिल न होकर संगीत के क्षेत्र को चुना था ख़ुर्शीद अनवर ने। अपनी मेधा को संगीत क्षेत्र में ला कर अत्यन्त कर्णप्रिय धुनें उन्होंने बनाई। २१ मार्च १९१२ को जन्मे ख़ुर्शीद अनवर की आज १०१-वीं जयन्ती है। इस उपलक्ष्य पर उनके द्वारा रचे एक गीत से जुड़ी बातें सुजॉय चटर्जी के साथ 'एक गीत सौ कहानियाँ' की १२-वीं कड़ी में...


एक गीत सौ कहानियाँ # 12

1947 में देश के विभाजन के बाद बहुत से कलाकार भारत से पाक़िस्तान जा बसे और बहुत से कलाकार सरहद के इस पार आ गए। उस पार जाने वालों में एक नाम संगीतकार ख़ुर्शीद अनवर का भी है। ख्वाजा ख़ुर्शीद अनवर का जन्म २१ मार्च १९१२ को मियाँवाली, पंजाब (अब पाक़िस्तान) में हुआ था। उनके नाना ख़ान बहादुर डॉ. शेख़ अट्टा मोहम्मद सिविल सर्जन थे और उनके पिता ख्वाजा फ़िरोज़ुद्दीन अहमद लाहौर के एक जानेमाने बैरिस्टर। पिता को संगीत का इतना ज़्यादा शौक था कि उनके पास ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड्स का एक बहुत बड़ा संग्रह था। इस तरह से बेटे ख़ुर्शीद को घर पर ही संगीत का माहौल मिल गया। बेटे की संगीत में दिलचस्पी के मद्देनज़र उनके पिता ने उन्हें ख़ानसाहिब तवक्कल हुसैन के पास संगीत सीखने भेज दिया। दूसरी तरफ़ ख़ुर्शीद अपने नाना और पिता की ही तरह मेधावी भी थे। वे गवर्णमेण्ट कॉलेज, लाहौर के एक मेधावी छात्र रहे। पूरे पंजाब विश्वविद्यालय में एम.ए दर्शनशास्त्र में प्रथम आने के बाद प्रतिष्ठित ICS परीक्षा के लिखित चरण में सफल होने के बावजूद साक्षात्कार चरण में शामिल न होकर संगीत के क्षेत्र को चुना था ख़ुर्शीद अनवर ने। अपनी मेधा को संगीत क्षेत्र में ला कर अत्यन्त कर्णप्रिय धुनें उन्होंने बनाई। नौशाद, रोशन, शंकर जयकिशन जैसे संगीतकार ख़ुर्शीद अनवर को पाँचवे दशक के सर्वोत्तम संगीतकारों में मानते थे। यह भी एक रोचक तथ्य है कि पंजाब विश्वविद्यालय के पुरस्कार वितरण समारोह में ख़ुर्शीद अनवर मौजूद नहीं थे। जब उनका नाम घोषित किया गया, तो विश्वविद्यालय के ब्रिटिश चान्सेलर, जो छात्रों को मेडल प्रदान कर रहे थे, ने यह टिप्पणी की कि जो छात्र अपना मेडल लेना भी भूल जाता है वह वाक़ई सच्चा दार्शनिक है। इस टिप्पणी पर वहाँ मौजूद सभी लोग हँस पड़े थे।
ए. आर. कारदार की पंजाबी फ़िल्म 'कुड़माई' (१९४१) से शुरुआत करने के बाद खुर्शीद अनवर ने 'इशारा' (१९४३), 'परख' (१९४४), 'यतीम' (१९४५), 'आज और कल' (१९४७), 'पगडंडी' (१९४७) और 'परवाना' (१९४७) जैसी फ़िल्मों में संगीत दिया। स्वाधीनता मिलने के बाद १९४९ में फिर उनके संगीत से सजी एक फ़िल्म आई 'सिंगार'। दरसल देश-विभाजन के बाद वो पाक़िस्तान चले गए थे जहाँ जनवरी १९४८ में उनका विवाह हुआ। अपने घनिष्ठ मित्र व फ़िल्म निर्माता जे. के. नन्दा के बुलावे पर मध्य १९४८ में पुन: बम्बई आकर फ़िल्म 'सिंगार' में संगीत दिया जो १९४९ में जाकर प्रदर्शित हुई। 'सिंगार' के मुख्य कलाकार थे जयराज, मधुबाला और सुरैया। जहाँ एक तरफ़ सुरैया ने अपने उपर फ़िल्माए गानें ख़ुद ही गाए, वहीं दूसरी तरफ़ मधुबाला के पार्श्वगायन के लिए गायिका सुरिन्दर कौर को चुना गया। ख़ुर्शीद अनवर ने सुरिन्दर कौर से इस फ़िल्म में कुल पाँच गानें गवाए।
ऐसा सुना जाता है कि ख़ुर्शीद अनवर इस फ़िल्म में मधुबाला के लिए लता मंगेशकर की आवाज़ लेना चाहते थे। पर उनका यह सपना सपना ही बनकर कैसे रह गया, इसकी भी एक रोचक कहानी है। पंकज राग की किताब 'धुनों की यात्रा' में इस कहानी का वर्णन कुछ इस तरह से मिलता है - दरअसल ख़ुर्शीद अनवर ने लता को उनकी मशहूरियत के दिनों के पहले एक फ़िल्म के गीत की रिहर्सल के लिए बुलाया था। लता जब पहुँची तो ख़ुर्शीद अनवर नहीं थे और कमरे में एक हारमोनियम वादक और एक सारंगी वादक बैठे थे। कुछ देर बाद हारमोनियम वादक ने लता को गाना सीखने के लिए बुलाया। लता ने पूछा कि वे अगर ख़ुर्शीद अनवर नहीं हैं तो वे गाना कैसे सिखा सकते हैं। इस पर हारमोनियम वादक ने उन्हें उत्तर में बताया कि ख़ुर्शीद अनवर स्वयं न तो हारमोनियम बजा सकते थे और न ही गाते थे, वे तो सिर्फ़ धुनें कम्पोज़ करते थे। लता के लिए यह आश्चर्यजनक था और यह कहते हुए कि वे उस संगीतकार के लिए नहीं गा सकतीं जो स्वयं गीत नहीं सिखा सकते, वे लौट आईं। इस वाक़ये पर ख़ुर्शीद अनवर के कुछ चहेतों ने आपत्ति लेते हुए इसे ग़लत भी बताया है। पर सच्चाई यह है कि लता कभी ख़ुर्शीद अनवर के लिए न गा सकीं।

खुर्शीद अनवर की पहली हिन्दी फ़िल्म 'इशारा' और 'सिंगार' में यह समानता है कि दोनों फ़िल्मों में उन्होंने हरियाणा के लोक संगीत का शुद्ध रूप से प्रयोग किया है। 'इशारा' में "पनघट पे मुरलिया बाजे" और "सजनवा आजा रे खेलें दिल के खेल" जैसे गीत थे तो 'सिंगार' में "चंदा रे मैं तेरी गवाही लेने आई" और "नया नैंनो में रंग" जैसी मधुर रचनाएँ थीं। इस फ़िल्म के संगीत के लिए ख़ुर्शीद अनवर को पुरस्कृत भी किया गया था। फ़िल्म 'सिंगार' में रोशन ने बतौर सहायक काम किया था। फ़िल्म का सर्वाधिक लोकप्रिय गीत था सुरिन्दर कौर का गाया "दिल आने के ढंग निराले हैं"। ख़ुर्शीद अनवर के बारे में सुरिन्दर कौर ने एक बार बताया था कि इस फ़िल्म के गीतों के रेकॉर्डिंग् के समय ख़ुर्शीद अनवर यह चाहते थे कि सुरिन्दर कौर गाने के साथ-साथ हाव-भाव भी प्रदर्शित करें, पर उन्होंने असमर्थता दिखाई कि वे भाव आवाज़ में ला सकती हैं, एक्शन में नहीं। यह काम मधुबाला ने कर दिखाया जिन पर यह गीत फ़िल्माया गया था।
"दिल आने के ढंग निराले हैं" गीत को लिखा था नख़शब जारचवी ने। मज़ेदार बात है कि बिल्कुल इन्हीं बोलों पर १९४८ की फ़िल्म 'मेरी कहानी' में सुरेन्द्र का भी गाया हुआ एक गीत है, और उस फ़िल्म में संगीतकार थे दत्ता कोरेगाँवकर। दोनों गीतों में बस इतना फ़र्क है कि दूसरे अंतरे की पहली दो पंक्तियाँ दोनों गीतों में अलग है, बाकी सब कुछ बिल्कुल एक है। ये रहे दोनों गीतों के बोल...


फ़िल्म - सिंगार, गायिका - सुरिन्दर कौर




दिल आने के ढंग निराले हैं,
दिल से मजबूर सब दिलवाले हैं।

कभी अखियाँ मिलाने पे आता है दिल,
कभी अखियाँ बचाने पे आता है दिल,
वो ही अखियाँ जिन्हें हमसे मतलब नहीं,
अखियों पे हम मतवाले हैं, दिल आने के ढंग....


तुमको देखा तो दुनिया बदलने लगी,
नज़रे बहकीं तबीयत मचलने लगी,
दिल की धड़कन इशारों पे चलने लगी,
बड़ी हिम्मत से काबू में रखा है दिल,
बड़ी मुश्किल से होश सम्भाले हैं, दिल आने के ढंग....

फ़िल्म - मेरी कहानी, गायक - सुरेन्द्र



दिल आने के ढंग निराले हैं,
दिल से मजबूर सब दिलवाले हैं।
कभी अखियाँ मिलाने पे आता है दिल,
कभी अखियाँ बचाने पे आता है दिल,
वो ही अखियाँ जिन्हें हमसे मतलब नहीं,
अखियों पे हम मतवाले हैं, दिल आने के ढंग....
प्यारी सूरत का जब सामना हो गया,
हम पे लाखों अदायों ने हमला किया,
बड़ी हिम्मत से काबू में रखा है दिल,
बड़ी मुश्किल से होश सम्भाले हैं, दिल आने के ढंग....

यह सचमुच आश्चर्य की बात है कि दो अलग अलग फ़िल्मों में एक ही गीत कैसे हो सकता है। हिन्दी फ़िल्म गीत कोश में नज़र दौड़ाने पर पता चलता है कि इन दोनों फ़िल्मों के निर्माता और निर्देशक अलग अलग हैं, संगीतकार भी अलग हैं। ऐसे में नख़शब ने कैसे अपना एक ही गीत दो फ़िल्मों के लिए दे दिया, यह आश्चर्य में डालने वाली ही बात है। ख़ैर, जो भी है, गीत सुन्दर व कर्णप्रिय है। आज ख़ुर्शीद अनवर की १०१-वीं जयन्ती पर इस गीत को याद करते हुए दिल जैसे उस गुज़रे हुए ज़माने में पहुँच गया है जब फ़िल्म-संगीत अपने पूरे शबाब पर हुआ करती थी। वाक़ई निराला था उस दौर का फ़िल्म-संगीत, वाक़ई निराले थे ख़ुर्शीद अनवर जैसे संगीतकार।
सुरिन्दर कौर और सुरेन्द्र के गाए "दिल आने के ढंग निराले हैं" को एक के बाद सुनने के लिए नीचे प्लेयरों पर क्लिक करें।
तो दोस्तों, यह था आज का 'एक गीत सौ कहानियाँ'। आज बस इतना ही, अगले बुधवार फिर किसी गीत से जुड़ी बातें लेकर मैं फिर हाज़िर हो‍ऊंगा, तब तक के लिए अपने इस ई-दोस्त सुजॉय चटर्जी को इजाज़त दीजिए, नमस्कार!