Saturday 14 April 2012

"अपने सुरों में मेरे सुरों को मिला लो" 1

गीत मन्ना डे के

Apr 24,2011 

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 641/2010/341





'दूर है किनारा..' :  किनारा ढूँढती मन्ना दा की आवाज़ 

'ओल्ड इस गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! मैं, सुजॉय चटर्जी, आप सभी का इस स्तम्भ में फिर एक बार स्वागत करता हूँ। यूँ तो इस श्रृंखला का वाहक मैं और सजीव जी हैं, लेकिन समय-समय पर आप में से कई श्रोता-पाठक इस स्तम्भ के लिए उल्लेखनीय योगदान करते आये हैं, चाहे किसी भी रूप में क्यों न हो! यह हमारा सौभाग्य है कि हाल में हमारी जान-पहचान एक ऐसे वरिष्ठ कला समीक्षक से हुई, जो अपने लम्बे कैरियर के बेशकीमती अनुभवों से हमारा न केवल ज्ञानवर्धन कर रहे हैं, बल्कि 'सुर-संगम' स्तम्भ में भी अपना अमूल्य योगदान समय-समय पर दे रहे हैं। और अब 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के लिए एक पूरी की पूरी श्रृंखला के साथ हाज़िर हैं। आप हैं लखनऊ के श्री कृष्णमोहन मिश्र। तो दोस्तों, आइए अगले दस अंकों के लिए 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का आनन्द लें,  कृष्णमोहन जी के साथ।
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'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों का मैं, कृष्णमोहन मिश्र, एक नई श्रृंखला में स्वागत करता हूँ। भारतीय फिल्मों ने जब से बोलना सीखा, तब से ही गीत-संगीत उसकी आवश्यकता भी थी और विशेषता भी। सवाक फिल्मों के पहले दशक (1931-1941) के संगीतकारों नें फिल्म संगीत में शास्त्रीय और लोक तत्वों का जो बीजारोपण किया, उसका प्रतिफल दूसरे और तीसरे दशक (1941-1961) की अवधि में खूब मुखर होकर सामने आया। दूसरे दशक में पुरुष गायक- मन्ना डे, मोहम्मद रफ़ी, मुकेश, किशोर कुमार और तलत महमूद जैसे समर्पित गायकों का आगमन हुआ, जिन्होंने अगले कई दशकों तक फिल्म संगीत-जगत पर एकछत्र शासन किया। इसी दशक की कोकिलकंठी लता मंगेशकर और वैविध्यपूर्ण गायन शैली के धनी मन्ना डे आज भी हमारे बीच फिल्म संगीत के सजीव इतिहास के रूप में उपस्थित हैं। ऐसे ही बहुआयामी प्रतिभा के धनी मन्ना डे के व्यक्तित्व और कृतित्व पर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की यह लघु श्रृंखला "अपने सुरों में मेरे सुरों को मिला लो" आज से शुरू हो रही है। रविवार 1 मई को मन्ना डे 92 वर्ष के हो जाएँगे। यह श्रृंखला हम उनके जन्मदिन के उपलक्ष्य में उनके स्वस्थ और दीर्घायु होने की कामना के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं। 
1 मई, 1919 को कलकत्ता (अब कोलकाता) के एक सामान्य मध्यवर्गीय संयुक्त परिवार में जन्में मन्ना डे का वास्तविक नाम प्रबोधचन्द्र डे था। 'मन्ना' उनका घरेलू नाम था। आगे चलकर वो इसी नाम से प्रसिद्ध हुए। मन्ना डे के पिता का नाम पूर्णचन्द्र डे, माता का नाम महामाया डे तथा चाचा का नाम कृष्णचन्द्र डे (के.सी. डे) था, जो गायक और संगीत शिक्षक के रूप में विख्यात थे। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा इन्दुबाबूर पाठशाला (इन्दुबाबू की पाठशाला) से, माध्यमिक शिक्षा स्कोटिश चर्च कालेज से तथा स्नातक की पढ़ाई विद्यासागर कालेज से हुई। बचपन में मन्ना डे को खेलकूद में काफी रूचि थी। उनका प्रिय खेल फुटबाल, कुश्ती और मुक्केबाजी रहा। अपनी इस रूचि के कारण वो अपने साथियों के बीच काफी लोकप्रिय थे। मन्ना डे को संगीत के प्रति अनुराग चाचा के.सी.डे की प्रेरणा से ही विरासत में प्राप्त हुआ। इण्टरमिडिएट में पढाई के दिनों में उनके संगीत प्रतिभा की चर्चा साथियों के बीच खूब होती थी। होता यह था कि खाली समय या मध्यान्तर में मन्ना डे को उनके साथी कक्षा में घेर कर बैठ जाते थे। मन्ना डे मेज को ताल वाद्य बना लेते और फिर गाने का सिलसिला शुरू हो जाता। इसी दौरान मन्ना डे नें अन्तरविद्यालय संगीत प्रतियोगिता के तीन वर्गों में भाग लिया और तीनों वर्गों में उन्हें प्रथम स्थान मिला। पहले तो उन्हें चाचा के.सी. डे ही संगीत का पाठ पढ़ाते थे लेकिन उनकी बढ़ती रुझान देखते हुए चाचा ने विधिवत संगीत शिक्षा दिलाने कि व्यवस्था कर दी। मन्ना डे पढाई में तो अच्छे थे ही, अच्छा गाने के कारण भी वो कालेज में खूब लोकप्रिय हो गए थे। स्नातक की परीक्षा में सफल होने के बाद मन्ना डे के सामने दो रास्ते खुले हुए थे। पहला यह कि कानून की पढाई कर बैरिस्टर बना जाये और दूसरा, चाचा की छत्र-छाया में संगीत क्षेत्र में भाग्य आजमाया जाये। काफी सोच-विचार के बाद मन्ना डे ने दूसरा रास्ता चुना और अपने चाचा के साथ मायानगरी मुम्बई की ओर चल पड़े।
यहाँ थोडा रुक कर हम मन्ना डे की उस समय की मनोदशा का अनुमान लगाते है- 'सौदागर' फिल्म के इस गीत के माध्यम से।

'दूर है किनारा...' : फिल्म - सौदागर : गीत-संगीत : रवीन्द्र जैन
http://www.youtube.com/watch?v=m0DSOGhuo4w

1973 में प्रदर्शित इस फिल्म में मन्ना डे ने बंगाल की बेहद चर्चित माँझी गीतों की भटियाली धुन में इस गीत को गाया है| फिल्म के संगीतकार रवीन्द्र जैन हैं। टेलीविजन के एक चैनल पर 'इण्डियन एक्सप्रेस' के सम्पादक शेखर गुप्ता से अपने साक्षात्कार में मन्ना डे नें फिल्म 'सौदागर' के इस गीत के बारे में कहा था- बचपन से ही हुगली नदी के प्रति मेरा विशेष लगाव रहा है। माँझी गीतों की लोक धुन बचपन से ही मन में बसी है। सौदागर अमिताभ बच्चन की प्रारम्भिक फिल्मों मे से एक अच्छी फिल्म है। संगीतकार रवीन्द्र जैन की धुन भी बहुत अच्छी है | यह सब कुछ मेरे लिए इतना अनुकूल था कि सचमुच एक अच्छा गीत तैयार हो गया

कृष्णमोहन मिश्र




Posted 24th April 2011 by Sajeev Sarathie



'अपने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो' 2

गीत मन्ना डे के
Apr 25, 2011 

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 642/2010/342


'अजब विधि का लेख किसी से पढ़ा नहीं जाए...' -जब वयोवृद्ध महर्षि वाल्मीकि की आवाज़ बने युवा मन्ना डे

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी मित्रों को कृष्णमोहन मिश्र का नमस्कार! स्वरगन्धर्व मन्ना डे पर केन्द्रित लघु श्रृंखला 'अपने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो' की कल पहली कड़ी में आपने मन्ना डे की बाल्यावस्था, उनकी शिक्षा-दीक्षा, अभिरुचि और पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में जानकारी प्राप्त की। आपने यह भी जाना कि अपने कैरियर के दोराहे पर खड़े होकर उन्होने बैरिस्टर बनने की अपेक्षा संगीतकार या गायक बनने के मार्ग पर चलना अधिक उपयुक्त समझा। मन्ना डे के इस निर्णय से उनके पिता बहुत सन्तुष्ट नहीं थे, बावजूद इसके उन्होंने अपने पुत्र के इस निर्णय में कोई बाधा नहीं डाली। अपने अन्ध-संगीतज्ञ चाचा कृष्णचन्द्र डे के साथ 1940 में मन्ना डे मुम्बई (तब बम्बई या बॉम्बे) के लिए रवाना हुए। उस समय उनके पास बाउल गीत, रवीन्द्र संगीत, थोडा-बहुत ख़याल, ठुमरी, दादरा आदि की संचित पूँजी थी | साथ में चाचा के.सी. डे का वरदहस्त उनके सर पर था।

प्रारम्भ में मन्ना डे अपने चाचा के सहायक के रूप में कार्य करने लगे। गीतों की धुन बनाने में सहयोग देने, धुन तैयार होने पर उसकी स्वरलिपि लिखने, यथास्थान वाद्ययंत्रों की संगति निर्धारित करने तथा पूर्वाभ्यास की व्यवस्था सँभालने का दायित्व मन्ना डे पर हुआ करता था। उन्ही दिनों निर्माता-निर्देशक विजय भट्ट 'रामराज्य' नामक फिल्म बना रहे थे। यह फिल्म अपने शीर्षक के अनुरूप रामायण की कालजयी कथा पर बन रही थी। फिल्म के एक प्रसंग में 'रामायण' के रचनाकार महर्षि वाल्मीकि पर एक गीत फिल्माया जाना था। निर्देशक विजय भट्ट और संगीतकार शंकरराव व्यास ने इस गीत को स्वर देने के लिए के.सी. डे का चुनाव किया। परन्तु के.सी. डे ने इस गीत को गाने में असमर्थता जताते हुए मन्ना डे का नाम प्रस्तावित कर दिया। शंकरराव व्यास मन्ना डे के नाम पर थोड़ा असमंजस में पड़ गए। उनकी चिन्ता का कारण यह था कि 20 -22 साल के नवजवान की आवाज़ वयोवृद्ध महर्षि वाल्मीकि के अनुकूल भला कैसे हो सकती है? परन्तु पूर्वाभ्यास में मन्ना डे के गायन से वह अत्यन्त प्रभावित हुए। 1942 में बनने वाली इस फिल्म में मन्ना डे नें महर्षि वाल्मीकि के लिए गीत गाया- 'अजब विधि का लेख किसी से पढ़ा नहीं जाए...'। इसके गीतकार रमेश चन्द्र गुप्त हैं।

एक बातचीत में मन्ना डे नें बताया था- 'रामराज्य' मेरी पहली फिल्म थी। मेरे लिए यह एक बड़ी चुनौती थी कि मुझे महर्षि वाल्मीकि के लिए गाना था।' मन्ना डे ने इस एकल गीत के अलावा इस फिल्म में बेबी तारा के साथ एक युगल गीत भी गाया था। परन्तु इन दोनों गीतों से ज्यादा प्रसिद्धि सरस्वती राणे के गाये गीत- 'वीणा मधुर मधुर कछु बोल....' को मिली। इस फिल्म के साथ दो सुखद प्रसंग भी जुड़े हैं | पहला- इस फिल्म को महात्मा गाँधी ने देखा और सराहना भी की। दूसरा प्रसंग यह कि 1947 में अमेरिका में पहली बार न्यूयार्क के माडर्न आर्ट म्यूजियम में यह फिल्म प्रदर्शित की गई थी। तो आइए मन्ना डे कि आवाज़ में उनका पहला रिकार्ड किया गीत सुनते हैं।

फिल्म - रामराजय :  'अजब विधि का लेख किसी से पढ़ा नहीं जाए...' : संगीत - शंकरराव व्यास 


खोज व आलेख- कृष्णमोहन मिश्र


Posted 25th April 2011 by Sajeev Sarathie

'अपने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो' 3

गीत मन्ना डे के
Apr 26, 2011 



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 643/2010/343

'क्यों अँखियाँ भर आईं, भूल सके ना हम तुम्हें...' - सुनिए मन्ना डे का स्वरबद्ध एक गीत भी  


'अपने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो' - मन्ना डे पर केन्द्रित इस श्रृंखला में मैं, कृष्णमोहन मिश्र, आप सभी का एक बार फिर स्वागत करता हूँ। कल की कड़ी में हमने आपसे मन्ना डे को फ़िल्मी पार्श्वगायन के क्षेत्र में मिले पहले अवसर के बारे में चर्चा की थी। दरअसल फिल्म 'रामराज्य' का निर्माण 1942 में शुरू हुआ था किन्तु इसका प्रदर्शन 1943 में हुआ। इस बीच मन्ना डे ने फिल्म 'तमन्ना' के लिए सुरैया के साथ एक युगल गीत भी गाया। इस फिल्म के संगीत निर्देशक मन्ना डे के चाचा कृष्ण चन्द्र डे थे। सुरैया के साथ गाये इस युगल गीत के बोल थे- 'जागो आई उषा, पंछी बोले....'। कुछ लोग 'तमन्ना' के इस गीत को मन्ना डे का पहला गीत मानते हैं। सम्भवतः फिल्म 'रामराज्य' से पहले प्रदर्शित होने के कारण फिल्म 'तमन्ना' का गीत मन्ना डे का पहला गीत मान लिया गया हो। इन दो गीतों के रूप में पहला अवसर मिलने के बावजूद मन्ना डे का आगे का मार्ग बहुत सरल नहीं था। एक बातचीत में मन्ना डे ने बताया कि पहला अवसर मिलने के बावजूद उन्हें काफी प्रतीक्षा करनी पड़ी। "रामराज्य" का गीत गाने के बाद मन्ना डे के पास धार्मिक गानों के प्रस्ताव आने लगे। उस दौर में उन्होंने फिल्म 'कादम्बरी', 'प्रभु का घर', विक्रमादित्य', 'श्रवण कुमार', 'बाल्मीकि', 'गीतगोविन्द' आदि कई फिल्मों में गीत गाये किन्तु इनमें से कोई भी गीत मन्ना डे को श्रेष्ठ गायक के रूप में स्थापित करने में सफल नहीं हुआ। हालाँकि इन फिल्मों के संगीतकार अनिल विश्वास, शंकर राव व्यास, पलसीकर, खान दत्ता, ज़फर खुर्शीद, बुलो सी रानी, सुधीर फडके आदि थे।

इस स्थिति का कारण पूछने पर मन्ना डे बड़ी विनम्रता से कहते हैं- "उन दिनों मुझसे बेहतर कई गायक थे जिनके बीच मुझे अपनी पहचान बनानी थी"। मन्ना डे का यह कथन एक हद तक ठीक हो सकता है किन्तु पूरी तरह नहीं। अच्छा गाने के बावजूद पहचान न बन पाने के दो कारण और थे। मन्ना डे से हुई बातचीत में यह तथ्य भी उभरा कि उन दिनों ग्रामोफोन रिकार्ड पर गायक कलाकार का नाम नहीं दिया जाता था, जिससे उनके कई अच्छे प्रारम्भिक गाने अनदेखे और अनसुने रह गए। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि उस दौर में उन्हें अधिकतर धार्मिक फिल्मों के हलके-फुल्के गाने ही मिले। इस परिस्थिति से मन्ना डे लगातार संघर्ष करते रहे।

मन्ना डे कोलकाता से मुम्बई अपने चाचा के सहायक की हैसियत से आए थे। उनकी यह भूमिका अपनी पहचान न बना पाने के दौर में अधिक महत्त्वपूर्ण हो गई थी। वो अपने चाचा को पितातुल्य मानते थे। एक साक्षात्कार में मन्ना डे ने कहा भी था- "मेरे लिए वो आराध्य, मित्र और मार्गदर्शक थे। वह उन दिनों बंगाल के संगीत जगत, विशेषकर कीर्तन गायन के क्षेत्र में शिखर पुरुष थे। मैंने अपने चाचा को कीर्तन गाते हुए देखा था। जब वो गाते थे, श्रोताओं की ऑंखें आँसुओं से भींगी होती थी। उनका सहायक बनना मेरे लिए सम्मान की बात थी। बर्मन दादा (सचिनदेव बर्मन) और पंकज मल्लिक जैसे संगीतकार मेरे चाचा से मार्गदर्शन प्राप्त करने आया करते थे"। ऐसे योग्य कलासाधक की छत्र-छाया में रह कर मन्ना डे संगीत रचना भी किया करते थे। टेलीविजन के कार्यक्रम 'सा रे गा म प' में एक बार गायक सोनू निगम से बातचीत करते हुए मन्ना डे ने बताया था कि अपने कैरियर के शुरुआती दौर में वो अपने चाचा के अलावा सचिन देव बर्मन, खेमचन्द्र प्रकाश और अनिल विश्वास के सहायक भी रहे और स्वतंत्र रूप से संगीत निर्देशक भी। उन्होंने सोनू निगम से यह भी कहा था- "संगीत रचना मैं आज भी कर सकता हूँ, यह मेरा सबसे पसन्दीदा कार्य है।"

50 के दशक में मन्ना डे ने खेमचन्द्र प्रकाश के साथ फिल्म 'श्री गणेश जन्म' और 'विश्वामित्र' तथा स्वतंत्र रूप से फिल्म 'महापूजा', 'अमानत', 'चमकी', 'शोभा', 'तमाशा' आदि में संगीत निर्देशन किया था। फिल्म 'चमकी' में मुकेश ने गीतकार प्रदीप का लिखा गीत- "कैसे ज़ालिम से पड़ गया पाला..." तथा फिल्म 'तमाशा' में लता मंगेशकर ने मन्ना डे के संगीत निर्देशन में गीत- "क्यों अँखियाँ भर आईं भूल सके न हम...." गाया | इस गीत को भरत व्यास ने लिखा है | आइए मन्ना डे की संगीत-रचना-कौशल का उदाहरण सुनते हुए आगे बढ़ते हैं |

फिल्म - तमाशा : "क्यों अँखियाँ भर आईं भूल सके न हम...." : संगीत - मन्ना डे


खोज व आलेख- कृष्णमोहन मिश्र


Posted 26th April 2011 by Sajeev Sarathie

'अपने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो' 4

गीत मन्ना डे के

Apr 27, 2011 

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 644/2010/344

'सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है...' - एक मुश्किल प्रतियोगिता के दौर में भी मन्ना दा ने अपनी खास पहचान बनाई 

सु-गन्धर्व मन्ना डे पर केन्द्रित हमारी श्रृंखला 'अपने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो' की चौथी कड़ी में आपका स्वागत है। मन्ना डे को फिल्मों में प्रवेश तो मिला किन्तु एक लम्बे समय तक वो चर्चित नहीं हो सके। इसके बावजूद उन्होंने उस दौर की धार्मिक-ऐतिहासिक फिल्मों में गाना, अपने से वरिष्ठ संगीतकारों का सहायक रह कर तथा अवसर मिलने पर स्वतंत्र रूप से भी संगीत निर्देशन करना जारी रखा। अभी भी उन्हें उस एक हिट गीत का इन्तजार था जो उनकी गायन क्षमता को सिद्ध कर सके। थक-हार कर मन्ना डे ने वापस कोलकाता लौट कर कानून की पढाई पूरी करने का मन बनाया। उसी समय मन्ना डे को संगीतकार सचिन देव बर्मन के संगीत निर्देशन में फिल्म 'मशाल' का गीत -"ऊपर गगन विशाल, नीचे गहरा पाताल..." गाने का अवसर मिला। गीतकार प्रदीप के भावपूर्ण साहित्यिक शब्दों को बर्मन दादा के प्रयाण गीत की शक्ल में, आस्था भाव से युक्त संगीत का आधार मिला और जब यह गीत मन्ना डे के अर्थपूर्ण स्वरों में ढला तो गीत ज़बरदस्त हिट हुआ। इसी गीत ने पार्श्वगायन के क्षेत्र में मन्ना डे को फिल्म जगत में न केवल स्थापित कर दिया बल्कि रातो-रात पूरे देश में प्रसिद्ध कर दिया। 'मशाल' के प्रदर्शन अवसर पर गीतों का जो रिकार्ड जारी हुआ था उसमे गीत का एक अन्तरा शामिल नहीं था, किन्तु गीत की सफलता के बाद रिकार्ड कम्पनी ने पूरा गीत जारी किया।

आमतौर पर जब किसी कलाकार को रातो-रात सफलता मिलती है तो वह अभिमानी होने से बच नहीं पाता, किन्तु मन्ना डे को संगीत साधना कर, गुरुजनों के आशीष पाकर और अपनी संगीत-निष्ठा के बल पर सफलता मिली थी। मन्ना डे ने जिस विनम्र भाव से फिल्मों में प्रवेश किया था वह विनम्रता उनके स्वभाव में आज भी है। पत्रकार अनुराधा सेनगुप्ता से एक बातचीत में उन्होंने कहा था- "मैंने अपने कार्य के प्रति पूरी ईमानदारी बरतने का प्रयास किया। गाना कोई भी हो मैंने अपना शत-प्रतिशत देने का प्रयास किया। गाने किसी भी भाषा के हों, उनके शब्दों के अर्थ जब तक मुझे समझ में न आ जाए और संगीत निर्देशक के साथ जब तक रिहर्सल नहीं होता, मैं रिकार्डिंग शुरू नहीं करता"। अपने इन्हीं गुणों के कारण मन्ना डे समकालीन गायक कलाकारों और संगीतकारों के प्रिय थे। संगीतकार सचिन देव बर्मन और अनिल विश्वास का कहना था- "मन्ना डे अपने समकालीन गायकों- रफ़ी, किशोर, मुकेश और तलत के किसी भी गाने को गा सकते हैं किन्तु यह सभी लोग कंठ-स्वर और तकनीकी कौशल की दृष्टि से मन्ना डे के गाने नहीं गा सकते।" पुरुष पार्श्वगायकों में मोहम्मद रफ़ी उनके सबसे बड़े प्रतिद्वन्द्वी थे, किन्तु यह भी आश्चर्यजनक सत्य है कि दोनों गहरे मित्र भी थे। टेलीविजन के एक संगीत प्रतिभा खोज कार्यक्रम में युवा गायक सोनू निगम से मन्ना डे ने कहा था- "रफ़ी साहब से मेरा परिचय तब हुआ जब उन्होंने मेरे संगीत निर्देशन में कोरस में गाया था। वह जितने अच्छे गायक थे उतने ही अच्छे इन्सान भी थे। फिल्म पार्श्व गायन के क्षेत्र में वो स्वयं एक घराना थे। हम दोनों बांद्रा में पास-पास रहते थे और पतंग उड़ाने का शौक हम दोनों को था। मैं हमेशा उनकी पतंग काट देता था। एक दिन उन्होंने मुझसे पूछा कि हर बार उनकी पतंग ही क्यों कट जाती है, उनके इस सवाल पर मैंने उनसे कहा कि आप जैसे सीधे और सरल हैं, वैसे ही पतंग उड़ाने के मामले में भी हैं। आपको पेंच लड़ाना नहीं आता"।

मोहम्मद रफ़ी भी मन्ना डे का बहुत सम्मान करते थे। एक बार पत्रकारों से बात करते हुए रफ़ी ने कहा था- "आप लोग मेरे गाये गाने सुनते हैं और मैं सिर्फ मन्ना डे को सुनता हूँ"। मन्ना डे ने मोहम्मद रफ़ी के साथ लगभग एक सौ से अधिक गाने गाये हैं, जिनमें से कुछ गीत तो लोकप्रियता के शिखर पर हैं। फिल्म 'बरसात की रात' की कव्वाली - "ये इश्क इश्क है....." तथा फिल्म 'परिवरिश' का हास्य गीत -"मामा ओ मामा..." में विषय की विविधता है। राग आधारित गीतों की श्रेणी में मोहम्मद रफ़ी के साथ मन्ना डे ने तीन उल्लेखनीय गीत गाये हैं। 1960 में बनी फिल्म 'कल्पना' में संगीतकार ओ.पी. नैयर ने दोनों दिग्गजों से गीत -"तू है मेरा प्रेम देवता...." गवाया था। यह राग 'ललित' पर आधारित एक मोहक गीत है। इस गीत में खास बात यह भी है कि पूरा गीत 'तीन ताल' में है जबकि अन्तरे के बीच में दक्षिण भारतीय ताल का प्रयोग हुआ है। इस जोड़ी का दूसरा गीत -"सुध बिसर गयी आज...." फिल्म 'संगीत सम्राट तानसेन' का है। 1962 में बनी इस फिल्म के संगीत निर्देशक एस.एन. त्रिपाठी नें इस गीत को राग 'हेमन्त' के स्वरों में और फिल्मों में कम प्रचलित ताल 'झपताल' में ढाला है। मोहम्मद रफ़ी के साथ मन्ना डे का गाया तीसरा गीत 1965 में बनी मनोज कुमार की फिल्म 'शहीद' का है। इस गीत में तीसरा स्वर सुप्रसिद्ध ग़ज़ल गायक राजेन्द्र मेहता का है। देश की आज़ादी के मतवालों द्वारा आततायियों को चुनौती देता यह गीत आज हमने आपको सुनाने के लिए चुना है। पहले आप यह गीत सुनिए-

फिल्म - शहीद : "सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है..." : संगीत प्रेम धवन


फिल्म 'शहीद' का यह गीत राग 'दरबारी कान्हड़ा' पर आधारित है। इसकी विशेषता यह है कि इस राग में अति कोमल 'गन्धार' और अति कोमल 'धैवत' स्वरों का बड़ा बारीक प्रयोग होता है, जिसकी अपेक्षा किसी सुगम अथवा फिल्म संगीत कि रचना में नहीं की जा सकती, किन्तु 'शहीद' के इस गीत में इन दोनों अति कोमल स्वरों का सटीक इस्तेमाल हुआ है, जिससे गीत की संवेदनशीलता बढ़ गई है, इसे सुन कर ही अनुभव किया जा सकता है।
 
खोज व आलेख- कृष्णमोहन मिश्र



Posted 27th April 2011 by Sajeev Sarathie

'अपने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो' 5

गीत मन्ना डे के
Apr 28, 2011 

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 645/2010/345

'लपक झपक तू आ रे बदरवा...' -सुनिए ये अनूठा अंदाज, मन्ना डे के गायन का  

मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी मित्रों का मैं कृष्णमोहन मिश्र स्वागत करता हूँ गायक मन्ना डे पर केन्द्रित शृंखला 'अपने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो' में। कल की कड़ी में आपसे मन्ना डे और मोहम्मद रफ़ी के अन्तरंग सम्बन्धों के बारे में कुछ दिलचस्प जानकारी हमने बाँटने का प्रयास किया था। आज की कड़ी में हम उनके प्रारम्भिक दिनों के कुछ और साथियों से अन्तरंग क्षणों की चर्चा करेंगे। मन्ना डे की संगीत शिक्षा, संगीत के प्रति उनका समर्पण, हर विधा को सीखने-समझने की ललक और इन सब गुणों से ऊपर साथी कलाकारों से मधुर-आत्मीय सम्बन्ध, उन्हें उत्तरोत्तर सफलता की ओर लिये जा रहा था। प्रारम्भिक दौर में मन्ना डे का ध्यान पार्श्वगायन से अधिक संगीत रचना की ओर था। उन दिनों मन्ना डे संगीतकार खेमचन्द्र प्रकाश के सहायक थे। एक बार खेमचन्द्र प्रकाश के अस्वस्थ हो जाने पर मन्ना डे नें फिल्म 'श्री गणेश महिमा' का स्वतंत्र रूप से संगीत निर्देशन भी किया था। मन्ना डे को वो पुत्रवत मानते थे। उन दिनों एक नया चलन शुरू हुआ था। हर अभिनेता चाहता था कि उसकी आवाज़ से मिलते-जुलते आवाज़ का गायक उसके लिए पार्श्वगायन करे। इस तलाश में दिलीप कुमार को पहले तलत महमूद और फिर मोहम्मद रफ़ी की और राज कपूर को मुकेश की आवाज़ मिल गई। मन्ना डे ने खुद को इस दौड़ से हमेशा अपने को अलग रखा। उन्हें तो बहुआयामी गायक बनना था। अपने लक्ष्य को पाने के लिए उन्होंने कभी समझौता नहीं किया।

यहाँ हम कई वर्ष पहले मन्ना डे से डा. मन्दार द्वारा की गयी लम्बी बातचीत का वह अंश प्रस्तुत कर रहे हैं, जिससे यह पता चलता है कि वो राज कपूर की आवाज़ बनते-बनते कैसे रह गए और वह स्थान मुकेश को मिल गया। मन्ना डे नें बताया था -"खेमचन्द्र जी मुझे पुत्र जैसा मानते थे। एक बार उन्होंने मुझे बताया कि अगर मैं चाहूँ तो मुझे राज कपूर के लिए गाने का मौका मिल सकता है। यह फिल्म रोबिन चटर्जी और फली मिस्त्री बना रहे थे। मैंने उस फिल्म में खुद गाने के बजाय वो गाने अपने मित्र शंकर दासगुप्त से गवाया।" ये दोनों गीत थे- "कबसे भरा हुआ है दिल...." तथा- "हम क्या जाने क्यों हमसे दूर हो गया...."। बाद में ये दोनों गीत हिट हुए थे। मन्ना डे नें बताया था कि वो किसी अभिनेता की आवाज़ बन कर बंधना नहीं चाहते थे। सचमुच, मन्ना डे किसी खास अभिनेता की आवाज़ तो नहीं बने परन्तु अपने समकालीन प्रायः सभी अभिनेताओं के लिए गाने गाये। बातचीत में मन्ना डे ने आगे बताया, -"मैंने राज कपूर की कई फिल्मों में गाने गाये। वो मेरे गाने से हमेशा संतुष्ट रहते थे। 1954 में राज जी की फिल्म 'बूट पालिश" प्रदर्शित हुई थी। इस फिल्म में गाने के लिए शंकर-जयकिशन ने मुझे बुलवाया। गाने की संगीत रचना राग आधारित थी। राज साहब अपनी फिल्म के गानों के रिहर्सल में उपस्थित रहा करते थे और रिहर्सल के दौरान ढोलक लेकर बैठते थे। उन्होंने बताया कि यह गाना पक्के राग पर आधारित है मगर इसे हास्य स्थिति में फिल्माया जाना है। मैंने अपनी ओर से कोशिश की और राज साहब संतुष्ट हो गए। फिल्म प्रदर्शित होने पर यह गाना हिट हो गया"।

'बूट पालिश' के इस गीत के बोल हैं -"लपक झपक तू आ रे बदरवा, सर की खेती सूखी जाये..." और इसे अभिनेता डेविड व साथियों पर फिल्माया गया है जेल के अंदर। चूँकि इस गीत को मन्ना डे ने ध्रुवपद अंग में गाया है और सामान्य रूप से सुनने पर राग 'मल्हार' के किसी प्रकार की ओर संकेत भी मिलता है, किन्तु इस संगीत रचना में कई रागों- दरबारी कान्हड़ा, अडाना, मेघ मल्हार, मियाँ की मल्हार जैसे रागों की झलक मिलती है। मन्ना डे के गीतों के संग्रह में इस गीत का राग- 'मल्हार' बताया गया है, जबकि स्वतंत्र रूप से 'मल्हार' कोई राग नहीं है। इसमें मेघ, मियाँ, सूर, गौड़ आदि प्रकार जब जुड़ते हैं तब यह एक स्वतंत्र राग कहलाता है। बहरहाल 'फिल्म संगीत और राग' विषय के शोधकर्ता एस.एन. टाटा ने इस गीत के राग को 'अडाना मल्हार' नाम देकर विवाद को समाप्त करने का प्रयास किया है। वैसे भी सुगम या फिल्म संगीत की रचना जब राग आधारित की जाती है तो उसमे राग की शुद्धता की बहुत अधिक अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। फिल्म की गीत-संगीत रचना कथानक के प्रसंग और फिल्माए जाने वाले दृश्य के अनुकूल होनी चाहिए। इस प्रयास में गायक को कभी-कभी स्वरों को तोडना-मरोड़ना भी पड़ता है। मन्ना डे को भी राग 'मियाँ की मल्हार' के मूल स्वरों में हास्य उत्पन्न करने के प्रयास में ऐसा करना पड़ा होगा। जो भी हो, 'बूट पालिश' का यह आकर्षक गीत सुनिए और मन्ना डे के गायन कौशल की मुक्त-कंठ से सराहना कीजिये -

फिल्म - बूट पालिश : "लपक झपक तू आ रे बदरवा..." : संगीत - शंकर-जयकिशन


हिन्दी फिल्मों में ध्रुवपद अंग में गाये इक्के-दुक्के गीत ही मिलते हैं। 'बूट पालिश' के इस गीत में ध्रुवपद अंग की भी झलक मिलती है और अन्तरों के बीच लोक संगीत का आनन्द भी मिलता है। इस फिल्म के अलावा 1943 में बनी फिल्म 'तानसेन' में कुन्दन लाल सहगल ने और 1962 में बनी फिल्म 'सगीत सम्राट तानसेन' में मन्ना डे ने ही राग 'कल्याण' अथवा 'अवधूत कल्याण' में तानसेन जी की धुवपद रचना -"सप्त सुरन तीन ग्राम..." गाया था।

खोज व आलेख- कृष्णमोहन मिश्र


Posted 28th April 2011 by Sajeev Sarathie


Friday 13 April 2012

'अपने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो' 6

गीत मन्ना डे के
May 1, 2011 

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 646/2010/346 
'भय भंजना वन्दना सुन हमारी...' - इस भजन के साथ जन्मदिन की शुभकामनाएँ, प्रिय मन्ना दा को 
 

'ओल्ड इज गोल्ड' के इस नये सप्ताह में सभी संगीतप्रेमी पाठकों-श्रोताओं का एक बार फिर स्वागत है। इन दिनों हमारी श्रृंखला 'अपने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो' जारी है। आज के शुभ दिन को ही ध्यान में रख कर बहुआयामी प्रतिभा के धनी गायक-संगीतकार पद्मभूषण मन्ना डे के व्यक्तित्व और कृतित्व पर हमने यह श्रृंखला आरम्भ की थी। भारतीय फिल्म संगीत जगत के जीवित इतिहास मन्ना डे का आज 93 वाँ जन्मदिन है, इस शुभ अवसर पर हम 'ओल्ड इज गोल्ड' परिवार और सभी संगीत प्रेमियों की ओर से मन्ना डे को हार्दिक शुभकामनाएँ देते हैं और उनके उत्तम स्वास्थ्य और दीर्घायु होने की कामना करते हैं।

पिछले अंक में हमने 'आर.के. कैम्प' में मन्ना डे के प्रवेश की चर्चा की थी। राज कपूर की फिल्मों के संगीतकार शंकर-जयकिशन का भी वह शुरुआती दौर था। मन्ना डे की प्रतिभा से यह संगीतकार जोड़ी, विशेष रूप से शंकर, बहुत प्रभावित थे। 'बूट पालिश' के बाद शंकर-जयकिशन की जोड़ी के साथ मन्ना डे नें अनेक यादगार गाने गाये। 1953 में मन्ना डे नें शंकर-जयकिशन के संगीत निर्देशन में तीन फिल्मों- 'चित्रांगदा', 'घर-बार' और 'दर्द-ए-दिल' में गीत गाये। 1955 में मन्ना डे के गायन से सजी दो ऐसी फ़िल्में बनीं, जिन्होंने उनकी गायन प्रतिभा में चाँद-सितारे जड़ दिये। फिल्म 'सीमा' का गीत- "तू प्यार का सागर है, तेरी एक बूँद के प्यासे हम...." फ़िल्मी भक्ति-गीतों में आज भी सर्वश्रेष्ठ पद पर प्रतिष्ठित है। इसी वर्ष मन्ना डे को राज कपूर की आवाज़ बनने का एक और अवसर मिला, फिल्म 'श्री 420' के माध्यम से। इस फिल्म में उन्होंने तीन गाने गाये, जिनमें एक एकल -"दिल का हाल सुने दिलवाला..." दूसरा, आशा भोसले के साथ युगल गीत -"मुड़ मुड़ के ना देख मुड़ मुड़ के...." और तीसरा लता मंगेशकर के साथ गाया युगल गीत -"प्यार हुआ, इकरार हुआ...."। फिल्म 'श्री 420' के गीत उन दिनों जबरदस्त हिट हुए थे और आज भी वही आलम बरकरार है। बच्चे-बच्चे की जबान पर ये गीत चढ़े हुए थे और विवाह के अवसर पर बजने वाले बैंड बाजे से इन्ही गानों की धुन बजती थी। मन्ना डे के स्वर में एकल गीत -"दिल का हाल सुने दिलवाला....." में लोक संगीत का पुट है। इस गीत के एक अन्तरे -"बूढ़े दरोगा ने चश्मे से देखा..." में तो मन्ना डे अपने स्वरों से शब्दों का ऐसा अभिनय कराते हैं कि परदे का दृश्य देखे बिना ही जीवन्त हो उठता है। गाने के इस अंश में परदे पर राज कपूर नें मन्ना डे के गले की हरकतों के अनुरूप अभिनय किया है। इसी प्रकार लता मंगेशकर के साथ गाया युगल गीत -"प्यार हुआ इकरार हुआ..." प्रेम की अभिव्यक्ति में बेजोड़ है। इस फिल्म के गानों को गाकर मन्ना डे नें संगीतकार द्वय में से शंकर को इतना प्रभावित कर दिया कि आगे चल कर शंकर उनके सबसे बड़े शुभचिन्तक बन गए।

1956 में शंकर-जयकिशन को फिल्म 'बसन्त बहार' में संगीत रचना का दायित्व मिला। इस फिल्म में उस समय के सर्वाधिक चर्चित और सफल अभिनेता भारत भूषण नायक थे और निर्माता थे आर. चन्द्रा। संगीतकार शंकर-जयकिशन ने फिल्म के अधिकतर गीत शास्त्रीय रागों पर आधारित रखे थे | इससे पूर्व भारतभूषण की कई फिल्मों में मोहम्मद रफ़ी उनके लिए सफल गायन कर चुके थे | अभिनेता भारतभूषण के भाई शशिभूषण इस फिल्म में मोहम्मद रफ़ी को ही लेने का आग्रह कर रहे थे, जबकि फिल्म के निर्देशक मुकेश से गवाना चाहते थे | यह बात जब शंकर जी को मालूम हुआ तो उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि राग आधारित इन गीतों को मन्ना डे के अलावा और कोई गा ही नहीं सकता | यह विवाद इतना बढ़ गाया कि शंकर-जयकिशन को इस फिल्म से हटने की धमकी तक देनी पड़ी | अन्ततः मन्ना डे के नाम पर सहमति बनी | फिल्म 'बसन्त बहार' में मन्ना डे के गाये गीत 'मील के पत्थर' सिद्ध हुए | फिल्म के एक गीत -"केतकी गुलाब जूही चम्पक बन फूलें....." में तो मन्ना डे ने सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ पं. भीमसेन जोशी के साथ गाया है | उपरोक्त प्रसंग मन्ना डे ने पत्रकार कविता छिब्बर से बातचीत में बताया था।

फिल्म 'बसन्त बहार' के अन्य गीत थे -"सुर ना सजे...." (एकल), "नैन मिले चैन कहाँ....." (लता मंगेशकर के साथ) तथा "भय भंजना वन्दना सुन हमारी...." (भजन)। आज आपको सुनवाने के लिए हमने 'बसन्त बहार' का भक्तिरस से ओत-प्रोत यही गीत चुना है। मन्ना डे के स्वरों में फिल्म 'बसन्त बहार' का यह गीत (भजन) गीतकार शैलेन्द्र ने लिखा है और यह राग "मियाँ की मल्हार" पर आधारित है और फ़िल्मी गीतों में बहुत कम प्रचलित दस मात्रा के ताल "झपताल" में है। राग "मियाँ की मल्हार" के स्वरों में अधिकतर रचनाएँ चंचल, श्रृंगार रस प्रधान और वर्षा ऋतु में नायिका की विरह व्यथा को व्यक्त करने वाली होती हैं, किन्तु यह गीत मन्ना डे के स्वरों में ढल कर भक्तिरस की अभिव्यक्ति करने में कितना सफल हुआ है, इसका निर्णय आप गीत सुन कर स्वयं करें -

फिल्म - बसन्त बहार : "भय भंजना वन्दना सुन हमारी...." : संगीत - शंकर-जयकिशन




खोज व आलेख- कृष्णमोहन मिश्र





Posted 1st May 2011 by Sajeev Sarathie

'अपने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो' 8


गीत मन्ना डे के

May 3,2011


ओल्ड इस गोल्ड श्रृंखला # 648/2010/348


'लागा चुनरी में दाग छुपाऊं कैसे....' - लौकिक और अलौकिक स्वरों के बीच उतराते-डूबते मन्ना दा बाँध ले जाते हैं हमारा मन भी


'अपने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो' - मन्ना डे को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस श्रृंखला की आठवीं कड़ी में मैं, कृष्णमोहन मिश्र, आप सभी का स्वागत करता हूँ। शंकर-जयकिशन और अनिल विश्वास के अलावा एक और अत्यन्त सफल संगीतकार थे, जो मन्ना डे की प्रतिभा के कायल थे।| उस संगीतकार का नाम था- रोशनलाल नागरथ, जिन्हें फिल्म संगीत के क्षेत्र में रोशन के नाम से खूब ख्याति मिली थी। अभिनेता राकेश रोशन और संगीतकार राजेश रोशन उनके पुत्र हैं तथा अभिनेता ऋतिक रोशन पौत्र । रोशन जी की संगीत शिक्षा लखनऊ के भातखंडे संगीत महाविद्यालय (वर्तमान में विश्वविद्यालय) से हुई थी। उन दिनों महाविद्यालय के प्रधानाचार्य डा. श्रीकृष्ण नारायण रातनजनकर थे। रोशन जी डा. रातनजनकर के प्रिय शिष्य थे। संगीत शिक्षा पूर्ण हो जाने के बाद रोशन ने दिल्ली रेडियो स्टेशन में दिलरुबा (एक लुप्तप्राय गज-तंत्र वाद्य) वादक की नौकरी की। उनका फ़िल्मी सफ़र 1948 में केदार शर्मा की फिल्म 'नेकी और बदी' से आरम्भ हुआ, किन्तु शुरुआती फिल्मे कुछ खास चली नहीं। मन्ना डे से रोशन का साथ 1957 की फिल्म 'आगरा रोड' से हुआ जिसमे मन्ना डे ने गीता दत्त के साथ एक हास्य गीत -"ओ मिस्टर, ओ मिस्टर सुनो एक बात..." गाया था। 1959 में मन्ना डे ने रोशन की तीन फिल्मों -'आँगन', 'जोहरा ज़बीं' और 'मधु' में भक्ति-गीतों को गाया, जिसमें 'मधु' फिल्म का भजन -"बता दो कोई कौन गली गए श्याम..." बहुत लोकप्रिय हुआ। 1960 की फिल्म 'बाबर' की कव्वाली -"हसीनों के जलवे परेशान रहते....." ने भी संगीत प्रेमियों को आकर्षित किया। परन्तु इन दोनों बहुआयामी कलाकारों की श्रेष्ठतम कृति तो अभी आना बाकी था।

1960 में फिल्म 'बरसात की रात' आई, जिसके लिए रोशन ने एक 12 मिनट लम्बी कव्वाली का संगीत रचा। इसे गाने के लिए मन्ना डे, मोहम्मद रफ़ी, आशा भोसले, सुधा मल्होत्रा और एस.डी. बातिश को चुना गया। मन्नाडे को इस जवाबी कव्वाली में उस्ताद के लिए, मोहम्मद रफ़ी को नायक भारत भूषण के लिए और आशा भोसले को नायिका के लिए गाना था। इस कव्वाली के बोल थे -"ना तो कारवाँ की तलाश है...."। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह कव्वाली फिल्म संगीत के क्षेत्र में 'मील का पत्थर' सिद्ध हुआ (इस क़व्वाली को हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'मजलिस-ए-क़व्वाली' में शामिल किया था)। रोशन और मन्ना डे, दोनों शास्त्रीय संगीत में प्रशिक्षित, लोक संगीत की भरपूर समझ रखने वाले थे। 1963 में रोशन को एक अवसर मिला, अपना श्रेष्ठतम संगीत देने का। फिल्म थी 'दिल ही तो है', जिसमे राज कपूर और नूतन नायक-नायिका थे। यह गाना राज कपूर पर फिल्माया जाना था। फिल्म के प्रसंग के अनुसार एक संगीत मंच पर एक नृत्यांगना के साथ बहुत बड़े उस्ताद को गायन संगति करनी थी। अचानक उस्ताद के न आ पाने की सूचना मिलती है। आनन-फानन में चाँद (राज कपूर) को दाढ़ी-मूंछ लगा कर मंच पर बैठा दिया जाता है। रोशन ने इस प्रसंग के लिए गीत का जो संगीत रचा, उसमे उपशास्त्रीय संगीत की इतनी सारी शैलियाँ डाल दीं कि उस समय के किसी फ़िल्मी पार्श्वगायक के लिए बेहद मुश्किल काम था। मन्ना डे ने इस चुनौती को स्वीकार किया और गीत -"लागा चुनरी में दाग, छुपाऊं कैसे...." को अपना स्वर देकर गीत को अमर बना दिया।

इस गीत का ढाँचा 'ठुमरी' अंग में है, किन्तु इसमें ठुमरी के अलावा 'तराना', 'पखावज के बोल', 'सरगम', नृत्य के बोल', 'कवित्त', 'टुकड़े', यहाँ तक कि तराना के बीच में हल्का सा ध्रुवपद का अंश भी इस गीत में है। संगीत के इतने सारे अंग मात्र सवा पाँच मिनट के गीत में डाले गए हैं। जिस गीत में संगीत के तीन अंग होते हैं, उन्हें 'त्रिवट' और जिनमें चार अंग होते हैं, उन्हें 'चतुरंग' कहा जाता है। मन्ना डे के गाये इस गीत को एक नये नामकरण की आवश्यकता है। यह गीत भारतीय संगीत में 'सदा सुहागिन राग' के विशेषण से पहचाने जाने वाले राग -"भैरवी" पर आधारित है। कुछ विद्वान् इसे राग "सिन्धु भैरवी" पर आधारित मानते हैं, किन्तु जाने-माने संगीतज्ञ पं. रामनारायण ने इस गीत को "भैरवी" आधारित माना है। गीत की एक विशेषता यह भी है कि गीतकार साहिर लुधियानवी ने कबीर के एक निर्गुण पद की भावभूमि पर इसे लिखा है। आइए इस कालजयी गीत को सुनते हैं-

फिल्म - दिल ही तो है :  "लागा चुनरी में दाग, छुपाऊं कैसे...." : संगीतकार - रोशन


शोध और आलेख - कृष्णमोहन मिश्र

Posted 3rd May 2011 by Sajeev Sarathie