Thursday 12 April 2012

'अपने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो' 10


गीत मन्ना डे के
May 5, 2011
ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 650/2010/90 

'भोर आई गया अँधियारा...' गज़ब की सकारात्मकता है मन्ना दा के स्वरों में, जिसे केवल सुनकर ही महसूस किया जा सकता है


'ओल्ड इज़ गोल्ड' के चाहनेवालों! आज हम आ पहुँचे हैं, लघु श्रृंखला 'अपने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो' की समापन कड़ी पर। पिछली कड़ियों में हम मन्ना डे के व्यक्तित्व और कृतित्व के कुछ थोड़े से रंगों से ही आपका साक्षात्कार करा सके। सच तो यह है कि एक विशाल वटबृक्ष की अनेकानेक शाखाओं की तरह विस्तृत मन्ना डे का कार्य है, जिसे दस कड़ियों में समेटना कठिन है। मन्ना डे नें हिन्दी फिल्मों में संगीतकार और गायक के रूप में गुणवत्तायुक्त कार्य किया। संख्या बढ़ा कर नम्बर एक पर बनना न उन्होंने कभी चाहा न कभी बन सके। उन्हें तो बस स्तरीय संगीत की लालसा रही। यह भी सच है कि फिल्म संगीत के क्षेत्र में जो सम्मान-पुरस्कार मिले वो उन्हें काफी पहले ही मिल जाने चाहिए थे। 1971 की फिल्म 'मेरा नाम जोकर' के गीत -"ए भाई जरा देख के चलो..." के लिए मन्ना डे को पहली बार फिल्मफेअर पुरस्कार मिला था। एक पत्रकार वार्ता में मन्ना डे ने स्वयं स्वीकार किया कि 'मेरा नाम जोकर' का यह गाना संगीत की दृष्टि से एक सामान्य गाना है, इससे पहले वो कई उल्लेखनीय और उत्कृष्ट गाने गा चुके थे। मन्ना डे को पहला राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार 1969 की फिल्म 'मेरे हुज़ूर' के गीत -"झनक झनक तोरी बाजे पायलिया..." को मिला था। फिल्मों में राग आधारित गीतों की सूची में यह सर्वोच्च स्थान पर रखे जाने योग्य है। गीत में राग "दरबारी" के स्वरों का अत्यन्त शुद्ध और आकर्षक प्रयोग है। 1971 में मन्ना डे को दूसरी बार वर्ष के सर्वश्रेष्ठ पुरुष गायक का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला। इस बार यह पुरस्कार बांग्ला फिल्म 'निशिपद्म' में गायन के लिए मिला था। मन्ना डे हिन्दी और बांग्ला दोनों भाषाओं की फिल्मों में समान रूप से लोकप्रिय हुए थे। पत्रकार कविता छिब्बर से बातचीत करते हुए मन्ना डे ने बताया था -"मैंने अब तक करीब 2500 बांग्ला गीत गाये हैं और इनमे से लगभग 75 प्रतिशत गीत मैंने स्वयं संगीतबद्ध भी किये हैं"। 1952 में मन्ना डे ने 'अमर भूपाली' नामक फिल्म में पार्श्वगायन किया था। यह फिल्म बांग्ला और मराठी, दोनों भाषाओं में बनी थी। इस फिल्म के गीतों से मन्ना डे पूरे बंगाल में लोकप्रिय हो गए थे।

1961-62 में मन्ना डे को भोजपुरी फिल्मों में गाने का अवसर मिला। उन्होंने 'आइल बसन्त बहार', 'बिदेसिया', 'लागी नाहीं छूटे राम', 'सीता मैया' आदि फिल्मों में स्तरीय गीत गाये। इन गीतों में से कुछ गीत पारम्परिक लोकगीतों पर आधारित थे। फिल्म 'बिदेसिया' का गीत "हँसी हँसी पनवा खियौले बेईमानवाँ...." बिहार के चर्चित लोकनाट्य शैली 'बिदेसिया' पर आधारित है। इसी प्रकार 1964 की फिल्म 'नैहर छूटल जाये' में होरी -"जमुना तट श्याम खेलत होरी...." और कजरी -"अरे रामा रिमझिम बरसेला....." में पारम्परिक लोकगीतों का सौन्दर्य था। मन्ना डे ने डा. हरिवंश राय बच्चन की कालजयी कृति 'मधुशाला' की 20 रुबाइयों को अपना स्वर देकर साहित्यप्रेमियों के घरों में भी अपनी पैठ बनाई। 1971 में उन्हें सर्वोच्च सम्मान "पद्मश्री", 2005 में "पद्मभूषण" तथा 2007 में "दादासाहेब फालके पुरस्कार" प्रदान किया गया।

हिन्दी फिल्मों में छह दशक तक अपने श्रेष्ठ संगीत से लुभाने वाले मन्ना डे ने 2006 में 'उमर' फ़िल्म का गीत -"दुनिया वालों को नहीं कुछ भी खबर...." सोनू निगम, कविता कृष्णमूर्ति और शबाब साबरी के साथ गाया था। इस गीत के बाद सम्भवतः उन्होंने हिन्दी फिल्म में गीत नहीं गाया है। इस श्रृंखला को विराम देने से पहले हम आपको एक ऐसा गीत सुनवाना चाहते हैं जिसमें जीवन का उल्लास है, विसंगतियों से संघर्ष करने की प्रेरणा है और अन्धकार से प्रकाश की ओर बढ़ने का आह्वान है। 1972 की "बावर्ची" फिल्म के इस गीत में मन्ना डे का साथ सुप्रसिद्ध ठुमरी गायिका निर्मला देवी और लक्ष्मी शंकर ने दिया है. साथ में है किशोर दा. गीत के बीच में हरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय की आवाज़ भी है। संगीतकार मदनमोहन ने इस गीत को राग "अलहैया विलावल" के स्वरों में और 'तीन ताल', 'सितारखानी' और 'कहरवा' तालों में निबद्ध किया है। इसी गीत के साथ लघु श्रृंखला 'अपने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो' को यहीं विराम देते हैं, और सुर-गंधर्व मन्ना डे को एक बार फिर से बहुत सारी शुभकामनाएँ देते हुए मैं, कृष्णमोहन मिश्र, आपसे अनुमति लेता हूँ, नमस्कार!

गीत : "भोर आई गया अँधियारा...." : संगीतकार - मदनमोहन


'हिंद-युग्म', 'आवाज़' और विशेषत: 'ओल्ड इज़ गोल्ड' स्तम्भ की तरफ़ से, इसके तमाम श्रोता-पाठकों की तरफ़ से, और मैं, सुजॉय चटर्जी, अपनी तरफ़ से श्री कृष्णमोहन मिश्र का तहे दिल से आभार व्यक्त करता हूँ इस अनुपम श्रृंखला को प्रस्तुत करने के लिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि इन दस कड़ियों के माध्यम से उन्होंने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के स्तर को जहाँ तक पहुँचा दिया है, उस स्तर को कायम रखना हमारे लिए चुनौती का काम होगा। रविवार एक नई श्रृंखला के साथ हम उपस्थित होंगे, लेकिन आप शनिवार की शाम 'ओल्ड इज़ गोल्ड विशेषांक' में शामिल होना न भूलिएगा। और अब मुझे भी अनुमति दीजिए, नमस्कार! 

खोज व आलेख- कृष्णमोहन मिश्र




Posted 5th May 2011 by Sajeev Sarathie



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