Saturday 14 April 2012

'अपने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो' 5

गीत मन्ना डे के
Apr 28, 2011 

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 645/2010/345

'लपक झपक तू आ रे बदरवा...' -सुनिए ये अनूठा अंदाज, मन्ना डे के गायन का  

मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी मित्रों का मैं कृष्णमोहन मिश्र स्वागत करता हूँ गायक मन्ना डे पर केन्द्रित शृंखला 'अपने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो' में। कल की कड़ी में आपसे मन्ना डे और मोहम्मद रफ़ी के अन्तरंग सम्बन्धों के बारे में कुछ दिलचस्प जानकारी हमने बाँटने का प्रयास किया था। आज की कड़ी में हम उनके प्रारम्भिक दिनों के कुछ और साथियों से अन्तरंग क्षणों की चर्चा करेंगे। मन्ना डे की संगीत शिक्षा, संगीत के प्रति उनका समर्पण, हर विधा को सीखने-समझने की ललक और इन सब गुणों से ऊपर साथी कलाकारों से मधुर-आत्मीय सम्बन्ध, उन्हें उत्तरोत्तर सफलता की ओर लिये जा रहा था। प्रारम्भिक दौर में मन्ना डे का ध्यान पार्श्वगायन से अधिक संगीत रचना की ओर था। उन दिनों मन्ना डे संगीतकार खेमचन्द्र प्रकाश के सहायक थे। एक बार खेमचन्द्र प्रकाश के अस्वस्थ हो जाने पर मन्ना डे नें फिल्म 'श्री गणेश महिमा' का स्वतंत्र रूप से संगीत निर्देशन भी किया था। मन्ना डे को वो पुत्रवत मानते थे। उन दिनों एक नया चलन शुरू हुआ था। हर अभिनेता चाहता था कि उसकी आवाज़ से मिलते-जुलते आवाज़ का गायक उसके लिए पार्श्वगायन करे। इस तलाश में दिलीप कुमार को पहले तलत महमूद और फिर मोहम्मद रफ़ी की और राज कपूर को मुकेश की आवाज़ मिल गई। मन्ना डे ने खुद को इस दौड़ से हमेशा अपने को अलग रखा। उन्हें तो बहुआयामी गायक बनना था। अपने लक्ष्य को पाने के लिए उन्होंने कभी समझौता नहीं किया।

यहाँ हम कई वर्ष पहले मन्ना डे से डा. मन्दार द्वारा की गयी लम्बी बातचीत का वह अंश प्रस्तुत कर रहे हैं, जिससे यह पता चलता है कि वो राज कपूर की आवाज़ बनते-बनते कैसे रह गए और वह स्थान मुकेश को मिल गया। मन्ना डे नें बताया था -"खेमचन्द्र जी मुझे पुत्र जैसा मानते थे। एक बार उन्होंने मुझे बताया कि अगर मैं चाहूँ तो मुझे राज कपूर के लिए गाने का मौका मिल सकता है। यह फिल्म रोबिन चटर्जी और फली मिस्त्री बना रहे थे। मैंने उस फिल्म में खुद गाने के बजाय वो गाने अपने मित्र शंकर दासगुप्त से गवाया।" ये दोनों गीत थे- "कबसे भरा हुआ है दिल...." तथा- "हम क्या जाने क्यों हमसे दूर हो गया...."। बाद में ये दोनों गीत हिट हुए थे। मन्ना डे नें बताया था कि वो किसी अभिनेता की आवाज़ बन कर बंधना नहीं चाहते थे। सचमुच, मन्ना डे किसी खास अभिनेता की आवाज़ तो नहीं बने परन्तु अपने समकालीन प्रायः सभी अभिनेताओं के लिए गाने गाये। बातचीत में मन्ना डे ने आगे बताया, -"मैंने राज कपूर की कई फिल्मों में गाने गाये। वो मेरे गाने से हमेशा संतुष्ट रहते थे। 1954 में राज जी की फिल्म 'बूट पालिश" प्रदर्शित हुई थी। इस फिल्म में गाने के लिए शंकर-जयकिशन ने मुझे बुलवाया। गाने की संगीत रचना राग आधारित थी। राज साहब अपनी फिल्म के गानों के रिहर्सल में उपस्थित रहा करते थे और रिहर्सल के दौरान ढोलक लेकर बैठते थे। उन्होंने बताया कि यह गाना पक्के राग पर आधारित है मगर इसे हास्य स्थिति में फिल्माया जाना है। मैंने अपनी ओर से कोशिश की और राज साहब संतुष्ट हो गए। फिल्म प्रदर्शित होने पर यह गाना हिट हो गया"।

'बूट पालिश' के इस गीत के बोल हैं -"लपक झपक तू आ रे बदरवा, सर की खेती सूखी जाये..." और इसे अभिनेता डेविड व साथियों पर फिल्माया गया है जेल के अंदर। चूँकि इस गीत को मन्ना डे ने ध्रुवपद अंग में गाया है और सामान्य रूप से सुनने पर राग 'मल्हार' के किसी प्रकार की ओर संकेत भी मिलता है, किन्तु इस संगीत रचना में कई रागों- दरबारी कान्हड़ा, अडाना, मेघ मल्हार, मियाँ की मल्हार जैसे रागों की झलक मिलती है। मन्ना डे के गीतों के संग्रह में इस गीत का राग- 'मल्हार' बताया गया है, जबकि स्वतंत्र रूप से 'मल्हार' कोई राग नहीं है। इसमें मेघ, मियाँ, सूर, गौड़ आदि प्रकार जब जुड़ते हैं तब यह एक स्वतंत्र राग कहलाता है। बहरहाल 'फिल्म संगीत और राग' विषय के शोधकर्ता एस.एन. टाटा ने इस गीत के राग को 'अडाना मल्हार' नाम देकर विवाद को समाप्त करने का प्रयास किया है। वैसे भी सुगम या फिल्म संगीत की रचना जब राग आधारित की जाती है तो उसमे राग की शुद्धता की बहुत अधिक अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। फिल्म की गीत-संगीत रचना कथानक के प्रसंग और फिल्माए जाने वाले दृश्य के अनुकूल होनी चाहिए। इस प्रयास में गायक को कभी-कभी स्वरों को तोडना-मरोड़ना भी पड़ता है। मन्ना डे को भी राग 'मियाँ की मल्हार' के मूल स्वरों में हास्य उत्पन्न करने के प्रयास में ऐसा करना पड़ा होगा। जो भी हो, 'बूट पालिश' का यह आकर्षक गीत सुनिए और मन्ना डे के गायन कौशल की मुक्त-कंठ से सराहना कीजिये -

फिल्म - बूट पालिश : "लपक झपक तू आ रे बदरवा..." : संगीत - शंकर-जयकिशन


हिन्दी फिल्मों में ध्रुवपद अंग में गाये इक्के-दुक्के गीत ही मिलते हैं। 'बूट पालिश' के इस गीत में ध्रुवपद अंग की भी झलक मिलती है और अन्तरों के बीच लोक संगीत का आनन्द भी मिलता है। इस फिल्म के अलावा 1943 में बनी फिल्म 'तानसेन' में कुन्दन लाल सहगल ने और 1962 में बनी फिल्म 'सगीत सम्राट तानसेन' में मन्ना डे ने ही राग 'कल्याण' अथवा 'अवधूत कल्याण' में तानसेन जी की धुवपद रचना -"सप्त सुरन तीन ग्राम..." गाया था।

खोज व आलेख- कृष्णमोहन मिश्र


Posted 28th April 2011 by Sajeev Sarathie


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