Friday 13 April 2012

'अपने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो' 8


गीत मन्ना डे के

May 3,2011


ओल्ड इस गोल्ड श्रृंखला # 648/2010/348


'लागा चुनरी में दाग छुपाऊं कैसे....' - लौकिक और अलौकिक स्वरों के बीच उतराते-डूबते मन्ना दा बाँध ले जाते हैं हमारा मन भी


'अपने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो' - मन्ना डे को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस श्रृंखला की आठवीं कड़ी में मैं, कृष्णमोहन मिश्र, आप सभी का स्वागत करता हूँ। शंकर-जयकिशन और अनिल विश्वास के अलावा एक और अत्यन्त सफल संगीतकार थे, जो मन्ना डे की प्रतिभा के कायल थे।| उस संगीतकार का नाम था- रोशनलाल नागरथ, जिन्हें फिल्म संगीत के क्षेत्र में रोशन के नाम से खूब ख्याति मिली थी। अभिनेता राकेश रोशन और संगीतकार राजेश रोशन उनके पुत्र हैं तथा अभिनेता ऋतिक रोशन पौत्र । रोशन जी की संगीत शिक्षा लखनऊ के भातखंडे संगीत महाविद्यालय (वर्तमान में विश्वविद्यालय) से हुई थी। उन दिनों महाविद्यालय के प्रधानाचार्य डा. श्रीकृष्ण नारायण रातनजनकर थे। रोशन जी डा. रातनजनकर के प्रिय शिष्य थे। संगीत शिक्षा पूर्ण हो जाने के बाद रोशन ने दिल्ली रेडियो स्टेशन में दिलरुबा (एक लुप्तप्राय गज-तंत्र वाद्य) वादक की नौकरी की। उनका फ़िल्मी सफ़र 1948 में केदार शर्मा की फिल्म 'नेकी और बदी' से आरम्भ हुआ, किन्तु शुरुआती फिल्मे कुछ खास चली नहीं। मन्ना डे से रोशन का साथ 1957 की फिल्म 'आगरा रोड' से हुआ जिसमे मन्ना डे ने गीता दत्त के साथ एक हास्य गीत -"ओ मिस्टर, ओ मिस्टर सुनो एक बात..." गाया था। 1959 में मन्ना डे ने रोशन की तीन फिल्मों -'आँगन', 'जोहरा ज़बीं' और 'मधु' में भक्ति-गीतों को गाया, जिसमें 'मधु' फिल्म का भजन -"बता दो कोई कौन गली गए श्याम..." बहुत लोकप्रिय हुआ। 1960 की फिल्म 'बाबर' की कव्वाली -"हसीनों के जलवे परेशान रहते....." ने भी संगीत प्रेमियों को आकर्षित किया। परन्तु इन दोनों बहुआयामी कलाकारों की श्रेष्ठतम कृति तो अभी आना बाकी था।

1960 में फिल्म 'बरसात की रात' आई, जिसके लिए रोशन ने एक 12 मिनट लम्बी कव्वाली का संगीत रचा। इसे गाने के लिए मन्ना डे, मोहम्मद रफ़ी, आशा भोसले, सुधा मल्होत्रा और एस.डी. बातिश को चुना गया। मन्नाडे को इस जवाबी कव्वाली में उस्ताद के लिए, मोहम्मद रफ़ी को नायक भारत भूषण के लिए और आशा भोसले को नायिका के लिए गाना था। इस कव्वाली के बोल थे -"ना तो कारवाँ की तलाश है...."। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह कव्वाली फिल्म संगीत के क्षेत्र में 'मील का पत्थर' सिद्ध हुआ (इस क़व्वाली को हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'मजलिस-ए-क़व्वाली' में शामिल किया था)। रोशन और मन्ना डे, दोनों शास्त्रीय संगीत में प्रशिक्षित, लोक संगीत की भरपूर समझ रखने वाले थे। 1963 में रोशन को एक अवसर मिला, अपना श्रेष्ठतम संगीत देने का। फिल्म थी 'दिल ही तो है', जिसमे राज कपूर और नूतन नायक-नायिका थे। यह गाना राज कपूर पर फिल्माया जाना था। फिल्म के प्रसंग के अनुसार एक संगीत मंच पर एक नृत्यांगना के साथ बहुत बड़े उस्ताद को गायन संगति करनी थी। अचानक उस्ताद के न आ पाने की सूचना मिलती है। आनन-फानन में चाँद (राज कपूर) को दाढ़ी-मूंछ लगा कर मंच पर बैठा दिया जाता है। रोशन ने इस प्रसंग के लिए गीत का जो संगीत रचा, उसमे उपशास्त्रीय संगीत की इतनी सारी शैलियाँ डाल दीं कि उस समय के किसी फ़िल्मी पार्श्वगायक के लिए बेहद मुश्किल काम था। मन्ना डे ने इस चुनौती को स्वीकार किया और गीत -"लागा चुनरी में दाग, छुपाऊं कैसे...." को अपना स्वर देकर गीत को अमर बना दिया।

इस गीत का ढाँचा 'ठुमरी' अंग में है, किन्तु इसमें ठुमरी के अलावा 'तराना', 'पखावज के बोल', 'सरगम', नृत्य के बोल', 'कवित्त', 'टुकड़े', यहाँ तक कि तराना के बीच में हल्का सा ध्रुवपद का अंश भी इस गीत में है। संगीत के इतने सारे अंग मात्र सवा पाँच मिनट के गीत में डाले गए हैं। जिस गीत में संगीत के तीन अंग होते हैं, उन्हें 'त्रिवट' और जिनमें चार अंग होते हैं, उन्हें 'चतुरंग' कहा जाता है। मन्ना डे के गाये इस गीत को एक नये नामकरण की आवश्यकता है। यह गीत भारतीय संगीत में 'सदा सुहागिन राग' के विशेषण से पहचाने जाने वाले राग -"भैरवी" पर आधारित है। कुछ विद्वान् इसे राग "सिन्धु भैरवी" पर आधारित मानते हैं, किन्तु जाने-माने संगीतज्ञ पं. रामनारायण ने इस गीत को "भैरवी" आधारित माना है। गीत की एक विशेषता यह भी है कि गीतकार साहिर लुधियानवी ने कबीर के एक निर्गुण पद की भावभूमि पर इसे लिखा है। आइए इस कालजयी गीत को सुनते हैं-

फिल्म - दिल ही तो है :  "लागा चुनरी में दाग, छुपाऊं कैसे...." : संगीतकार - रोशन


शोध और आलेख - कृष्णमोहन मिश्र

Posted 3rd May 2011 by Sajeev Sarathie

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